संसद के बजट सत्र में आम बजट और सरकार के भावी एजेंडे को बयान करने वाले राष्ट्रपति के अभिभाषण के साथ ही विपक्ष के रवैये पर भी निगाह होगी, क्योंकि उसके सहयोग के बिना संसदीय कार्यवाही चल ही नहीं सकती। बजट सत्र के पहले आयोजित सर्वदलीय बैठक में विपक्ष ने यह स्पष्ट किया कि वह अर्थव्यवस्था, कश्मीर के हालात, किसानों की हालत समेत अन्य मसलों पर चर्चा चाहेगा।

इस पर संसदीय कार्य मंत्री ने यह रेखांकित किया कि सरकार सभी मुद्दों पर चर्चा को तैयार है। इसके बाद होना तो यही चाहिए कि संसद में सभी जरूरी मुद्दों पर सार्थक चर्चा हो, लेकिन इसके आसार कम ही हैं। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि सत्तापक्ष और विपक्ष सर्वदलीय बैठकों के जरिये जो समझबूझ प्रकट करते हैं वह सदनों के भीतर मुश्किल से ही नजर आती है।

विपक्ष ने संसद में चर्चा के लिए अपनी पसंद के जो मसले गिनाए हैं उनमें नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शन भी हैं। क्या यह विचित्र नहीं कि जो विरोध प्रदर्शन विपक्षी दलों की ओर से या फिर उनके सहयोग-संरक्षण से ही हो रहे हैं उन पर ही वह चर्चा करना चाह रहे हैं? क्या यह वही कानून नहीं जिसके निर्माण की जरूरत एक समय कांग्रेस ने भी जताई थी और वाम दलों ने भी? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नागरिकता संशोधन विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में व्यापक बहस हो चुकी है और उसमें विपक्ष ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया था।

क्या विपक्षी दल यह चाह रहे हैं कि संसद से पारित कानून को सड़कों पर उतरकर खारिज करने की कोई नई परंपरा विकसित हो? यदि नहीं तो फिर उनकी इस मांग को संवैधानिक या फिर लोकतांत्रिक कैसे कहा जा सकता है कि सरकार नागरिकता संशोधन कानून कोे वापस ले?

सवाल यह भी है कि विपक्षी दल इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा करने को तैयार क्यों नहीं हैं और वह भी तब जब ज्यादातर याचिकाएं उनकी ही ओर से दायर की गई हैं? यह सही है कि विपक्ष में रहने वाले दल आरोपों के आधार पर राजनीति करते हैं और बात-बात पर सरकार को घेरते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे आम लोगों को भ्रमित और भयभीत करने के साथ ही भड़काने का काम करें। वे यही कर रहे हैं।

उन्हें यह समझ आए तो बेहतर कि यह खतरनाक राजनीति है और इससे किसी का भला नहीं होने वाला। संसद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह देश को दिशा दिखाने का काम करे, लेकिन यह तो तभी हो सकता है जब वहां सार्थक चर्चा हो।