इस वर्ष मानसून के लंबा खिंचने के चलते बाढ़ जनित समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। पहले महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश बाढ़ से हलकान थे तो अब पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के साथ कर्नाटक और केरल भी बदहाल हैं।

यह पहली बार नहीं जब देश के तमाम हिस्से बाढ़ की चपेट में आए हों, लेकिन कुछ अर्से से कम समय में ज्यादा बारिश अधिक देखने को मिल रही है। यह जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के ऐसे दुष्प्रभाव कहीं अधिक देखने को मिल सकते हैं। अब जब यह माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचना कठिन है तो यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि बारिश से उपजने वाली समस्याओं का समाधान करने के लिए हर संभव कदम उठाए जाएं।

ऐसे कदमों की सबसे अधिक जरूरत शहरों में है, क्योंकि बरसाती पानी की निकासी के अभाव में वे थोड़ी सी भी अधिक बारिश में उफन पड़ते हैं। अब तो यह भी देखने को मिल रहा है कि क्षेत्र विशेष में कम बारिश के बावजूद वह बाढ़ की चपेट में आ जाता है। पटना इसका ही उदाहरण बना हुआ है। पटना के साथ- साथ भागलपुर की भी हालत खराब है और अंदेशा इस बात का है कि आने वाले दिनों में बिहार के कुछ और शहरी इलाके बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं। ध्यान रहे कि कुछ दिनों पहले मुंबई और पुणे बारिश से बदहाल थे।

यह सही है कि जब कहीं जरूरत से ज्यादा बारिश होगी तो समस्याएं सिर उठाएंगी ही, लेकिन भारत की समस्या यह है कि हमारे शहरों का ढांचा चरमरा गया है। स्मार्ट सिटी सरीखी योजनाओं के बाद भी स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव आता नहीं दिख रहा है तो इसीलिए कि सुनियोजित विकास की घोर अनदेखी की जा रही है। यह तब है जब देश के सभी शहर आबादी के बढ़ते दबाव का सामना कर रहे हैं।

चूंकि शहरी ढांचे को दुरुस्त करने का काम आधे-अधूरे मन और अधकचरी योजनाओं से किया जा रहा है इसलिए बारिश के दिनों में शहरों में ढंग से रहना मुश्किल हो रहा है। खराब बात यह है कि शहरों की दुर्दशा से परिचित होने के बाद भी उन्हें रहने लायक बनाने के मामले में जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई जा रही है।

ऐसे में आम जनता को यह समझना ही होगा कि केवल नेताओं और नौकरशाहों को कोसने से काम चलने वाला नहीं है। उसे नीति-नियंताओं को जवाबदेह बनाने के साथ यह भी समझना होगा कि शहरी ढांचे में व्यापक तब्दीली लाने की जरूरत है और इस तब्दीली की कुछ कीमत भी चुकानी होगी।