लोकपाल का गठन ऐसे समय में हो रहा है जब देश में आदर्श आचार संहिता अमल में आ चुकी है
भ्रष्टाचार विरोधी ऐसी व्यवस्था के निर्माण का कोई मतलब नहीं जो नेताओं और नौकरशाहों के कदाचार पर लगाम न लगा सके और जनता को राहत न दे सके।
देश के पहले लोकपाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीसी घोष का नाम सामने आना एक अच्छी खबर तो है, लेकिन अगर उनके नाम की आधिकारिक घोषणा हो जाती है तो भी यह कहना कठिन है कि भ्रष्टाचार रोधी एक प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था आकार लेने वाली है। एक तो अभी लोकपाल सदस्यों के नाम भी तय होने हैं और दूसरे, इसका निर्धारण भी होना है कि लोकपाल व्यवस्था कैसे काम करेगी और वह सीबीआइ और सीवीसी के बीच कैसे संतुलन बैठाएगी? इस सवाल के बीच लोकपाल प्रमुख और उसके सदस्यों को लेकर विवाद भी छिड़ने के आसार हैं।
सच तो यह है कि विवाद छिड़ता हुआ दिख भी रहा है। देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें उच्च पद पर किसी का चयन तब तक मंजूर नहीं होता जब तक वह उसे सही होने का प्रमाण पत्र न दे दें। हैरत नहीं ऐसे लोग जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते नजर आएं। जो भी हो, इस पर हैरानी नहीं कि लोकपाल चयन समिति में लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे ने हिस्सा नहीं लिया। उनकी शिकायत यह थी कि उन्हें नेता विपक्ष के तौर पर नहीं, बल्कि विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर बुलाया जा रहा है। अपनी इसी शिकायत के बहाने वह लोकपाल चयन समिति की बैठकों का बहिष्कार यह जानते हुए भी करते रहे कि कांग्रेस नेता विपक्ष की हैसियत हासिल करने में नाकाम रही है। वह इससे भी परिचित थे कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दलीलों पर गौर नहीं किया। ऐसा लगता है कि खड़गे असहयोग करने पर आमादा थे। पता नहीं उन्हें लोकपाल चयन समिति में अपनी राय रखने में क्या परेशानी थी? आखिर ऐसा भी नहीं कि इस पांच सदस्यीय समिति में वही सब कुछ होना था जो वह चाहते।
इस पर संतोष नहीं जताया जा सकता कि आखिरकार लोकपाल व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ी, क्योंकि इसमें पांच साल की देर हुई है। यह प्रक्रिया तब आगे बढ़ सकी जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और उसने लोकपाल के गठन में देरी को लेकर सवाल खड़े किए। अच्छा होता कि आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के पहले लोकपाल के गठन का काम पूरा हो जाता। यह सही है कि लोकपाल निर्माण की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आगे बढ़ रही है, लेकिन आखिर यह कितना उचित है कि जब आदर्श आचार संहिता अमल में आ चुकी है तब लोकपाल का गठन हो रहा है? हो सकता है कि आगामी कुछ दिनों में लोकपाल व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया पूरी हो जाए, लेकिन अगर वह राज्यों के लोकायुक्त की तरह ही काम करती है तो वह सपना शायद ही पूरा हो जो लोकपाल आंदोलन के दौरान देखा गया था।
भ्रष्टाचार विरोधी ऐसी व्यवस्था के निर्माण का कोई मतलब नहीं जो नेताओं और नौकरशाहों के कदाचार पर लगाम न लगा सके और जनता को राहत न दे सके। क्या कोई बता सकता है कि राज्यों में गठित लोकायुक्त व्यवस्था आम आदमी को किस तरह राहत दे रही है? बेहतर हो कि विचार इस पर भी हो कि भ्रष्टाचार विरोधी प्रभावी तंत्र कैसे बने?