चुनावों से पहले नेताओं का पालाबदल कोई नई–अनोखी बात नहीं, लेकिन पिछले कुछ समय से कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ने का जैसा सिलसिला कायम है, वह देश के इस सबसे पुराने दल की दयनीय दशा और स्याह भविष्य को ही रेखांकित करता है। हालांकि भाजपा और कुछ अन्य दलों के चंद नेता कांग्रेस की शरण में भी गए हैं, लेकिन इसकी तुलना में उसके नेताओं के पार्टी छोड़ने की संख्या कहीं अधिक है।

कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की संख्या जिस तेजी से बढ़ती चली जा रही है, उससे तो यह लगता है कि पार्टी छोड़ो जैसा कोई अभियान चल रहा है। गत दिवस लुधियाना से कांग्रेस के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू भी भाजपा में शामिल हो गए। उनके कांग्रेस छोड़ने से पार्टी नेतृत्व को हैरान-परेशान होना चाहिए, लेकिन शायद ही ऐसा हो, क्योंकि राहुल गांधी आम तौर पर ऐसे नेताओं को डरपोक या अवसरवादी करार देकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। वह और उनके करीबी यह देखने-समझने के लिए तैयार नहीं कि आखिर क्या कारण है कि एक के बाद एक नेता पार्टी छोड़ रहे हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते रवनीत सिंह का भाजपा में जाना इसलिए कांग्रेस के लिए एक बड़ा आघात है, क्योंकि पंजाब उन राज्यों में है, जहां कांग्रेस अपेक्षाकृत मजबूत दिखती है और भाजपा तीसरे-चौथे नंबर के दल के तौर पर देखी जाती है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि कांग्रेस छोड़ने वालों में कई ऐसे नेता भी हैं, जो गांधी परिवार के करीबी माने जाते थे, जैसे अशोक चव्हाण, मिलिंद देवड़ा, सुरेश पचौरी। इसके पहले राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड के सदस्य कहे जाने वाले अधिकांश नेता भी कांग्रेस से विदा ले चुके हैं।

कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं में एक बड़ी संख्या उनकी है, जो अपने जनाधार के लिए जाने जाते हैं। गांधी परिवार के करीबी नेताओं में बहुत कम ऐसे हैं, जो अपने बलबूते चुनाव जीतने की क्षमता रखते हों। राहुल गांधी भले ही यह दिखाएं कि कांग्रेस नेताओं के जाने से पार्टी की सेहत पर फर्क नहीं पड़ता, लेकिन सच तो यह है अब फर्क पड़ता दिख रहा है। कुछ नेता चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं और कुछ तो प्रत्याशी घोषित होने के बाद अपने कदम पीछे खींच चुके हैं।

कांग्रेस भले ही यह दिखा रही हो कि वह भाजपा का मुकाबला करने मे समर्थ है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि वह अपने नेतृत्व वाले मोर्चे आइएनडीआइए को वैसा आकार नहीं दे सकी, जिसकी आशा की जा रही थी। इसके लिए कांग्रेस अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती। कांग्रेस का क्षरण इसलिए शुभ संकेत नहीं, क्योंकि भाजपा के समक्ष वही सही मायने में एक राष्ट्रीय दल है। अन्य राष्ट्रीय दलों में कोई भी ऐसा नहीं, जिसकी जड़ें देश भर में हों। लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष भी आवश्यक होता है, लेकिन सत्तापक्ष उसकी मजबूती की चिंता नहीं कर सकता।