राजकीय बालिका गृह के हालात तंत्र की संवेदनहीनता का उदाहरण भर है। इसे सब चलता है वाले अंदाज से खारिज नहीं किया जा सकता। दोषी लोगों को सजा और दूसरों को सबक मिलना ही चाहिए।
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देहरादून स्थित राजकीय बालिका गृह पर अपर सचिव की रिपोर्ट आंखें खोलने वाली है। उनकी रिपोर्ट में बालिका गृह के जिन हालात का वर्णन किया गया है, उससे साफ है यहां बच्चे नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। इसकी पुष्टि पुलिस की जांच में हुई है। आखिरकार मामले में आठ लोगों पर मुकदमा भी दर्ज कर लिया गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस पूरे प्रकरण के लिए सिर्फ ये आठ लोग जिम्मेदार हैं? आखिर इतना बड़ा तंत्र क्या कर रहा है? क्या जिम्मेदारों को अब तक इसकी भनक नहीं थी? क्या यहां बैठे लोगों में इंसानियत भी लोप हो चुकी है? करीब एक वर्ष पहले देहरादून में नारी निकेतन को लेकर सामने आए सच में भी संवासिनियों की दुदर्शा पता चली थी। इसमें भी वहां से जुड़े कर्मचारियों की संलिप्तता सामने आई थी। इसके बावजूद सिस्टम नहीं जागा। दरअसल, यह तर्क गले से नहीं उतरता कि इस बारे में किसी को कुछ पता नहीं था। हकीकत यह है कि यह सब वर्षों से चलता आ रहा है। इसे तंत्र की लापरवाही कहें या संवेदनहीनता, सब जानते हैं कि कोई नहीं देखने वाला। अब जबकि जांच शुरू हो चुकी है तो अधिकारियों का दायित्व है कि प्रकरण में जिम्मेदार लोग सलाखों के पीछे पहुंचे। सवाल सिर्फ कार्रवाई का नहीं, बल्कि इसका भी है कि इसे एक सबक के तौर पर लिया जाना चाहिए। जाहिर है दोषियों को सजा मिले बिना यह संभव नहीं हो पाएगा। 17 साल पहले उत्तराखंड ने नक्शे पर अलग राज्य के रूप में भले ही पहचान बनाई हो, लेकिन अच्छा राज्य बनने के लिए अभी लंबे सफर की दरकार है। सवाल यह है कि जिन सपनों को लेकर अलग राज्य की लड़ाई लड़ी गई, क्या इन हालात में वे साकार हो पाएंगे। अविभाजित उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड के लोग जिस उपेक्षा के दंश को झेल रहे थे, क्या उससे निजात मिल सकी। इन सभी सवालों के जवाब निराशाजनक हैं। भौगोलिक सीमाओं को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद इस पहाड़ी राज्य ने शायद ही कोई बदलाव महसूस किया हो। फिर बात चाहे शिक्षा की गुणवत्ता की हो या बिजली, पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं की। क्या संवेदनशील हुए बिना इन समस्याओं से पार पाया जा सकता है। अब वक्त आ गया है कि हम इस दिशा में गहन मंथन और चिंतन किया जाए। चाहे सियासी दल हों, अफसर अथवा मुलाजिम या आम जन। सबको विचार करना होगा कि हमें कैसा उत्तराखंड चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]