संसद में हंगामा करने के लिए किस तरह नित-नए बहाने तलाशे जाते हैं, इसका पता इससे चल रहा है कि पहले दिल्ली दंगों पर तत्काल चर्चा की मांग को लेकर सदन की कार्यवाही बाधित की जा रही थी, फिर हंगामा करने वाले सांसदों के निलंबन को लेकर ऐसा ही किया जाने लगा। जब मकसद हर हाल में हंगामा करना ही हो तो फिर बहाने खोजना कठिन काम नहीं। कायदे से हंगामा करने वाले सांसदों के खिलाफ कार्रवाई होनी ही चाहिए, लेकिन जब भी ऐसा होता है तब हंगामा करके अपने निलंबन को निमंत्रण देने वाले सांसद यह रोना रोने लगते हैं कि उन्हें बोलने से रोका जा रहा है। इतने से भी संतोष नहीं होता तो आपातकाल लग जाने या फिर तानाशाही कायम हो जाने का शोर मचाया जाने लगता है। इन दिनों ऐसा ही हो रहा है।

हैरत नहीं कि हंगामा करके संसद न चलने देने वाले सांसद यह मानकर चल रहे हों कि वे अपने उद्देश्य में सफल हैं। बड़ी बात नहीं कि उनके नेताओं से उन्हें शाबाशी भी मिल रही हो। चूंकि राजनीतिक दल संसद में हंगामा करने को एक तरह की उपलब्धि मानने लगे हैं इसलिए संसदीय कार्यवाही का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। यदि इस गिरावट को रोका नहीं गया तो ऐसी भी स्थिति बन सकती है कि संसद के चलने या न चलने का कोई महत्व न रह जाए।

इसमें संदेह है कि संसद में हंगामे की जांच के लिए बनी समिति ऐसे उपाय कर सकेगी जिससे संसदीय कार्यवाही में कोई उल्लेखनीय सुधार हो सकेगा। क्या यह किसी से छिपा है कि प्रत्येक संसद सत्र के पहले होने वाली सर्वदलीय बैठकें निरर्थक ही साबित हो रही हैं? इस सप्ताह संसद के दोनों सदनों में कोई खास कामकाज इसलिए नहीं हो सका, क्योंकि जहां विपक्ष दिल्ली दंगों पर तुरंत चर्चा चाह रहा था वहीं सत्तापक्ष होली के बाद चर्चा के पक्ष में था।

इसके पीछे उसकी दलील यह थी कि इस चर्चा के दौरान ऐसी कोई बात हो सकती है जिससे माहौल बिगड़ जाए। इस आशंका को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि सत्तापक्ष अपनी बात को सही तरह रेखांकित नहीं कर सका। इसका लाभ उठाकर विपक्ष यह माहौल बनाने में जुटा रहा कि सरकार चर्चा से बच रही है। चूंकि अब होली बाद ही दिल्ली दंगों पर चर्चा होगी इसलिए देखना यह है कि उससे क्या हासिल होता है? कुछ ठोस हासिल होने की उम्मीद कम ही है, क्योंकि आज की राजनीति दलगत हितों के आगे राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करने में भी संकोच नहीं करती। इसी राजनीति ने दिल्ली में जहर घोला।