उत्तराखंड में बजट खर्च की चाल माथे पर चिंता की लकीरें खींच रही हैं। यूं भी कह सकते हैं कि इस मामले में सरकारी तंत्र पारंपरिक र्ढे से बाहर नहीं निकल पा रहा है या फिर निकलने की कोशिश ही नहीं कर रहा है। यह केवल आरोप-प्रत्यारोप नहीं, बल्कि वह सच है तो आंकड़ों से साबित हो रहा है। राज्य गठन के बाद से ही यह स्थिति बनी हुई है। सरकारें जिसकी भी रही हों, बजट पर सभी का नजरिया कमोबेश एक जैसा रहा। इसी वित्तीय वर्ष को देखें तो तमाम महकमे अभी तक केवल चालीस फीसद ही बजट खर्च कर पाए हैं। इसमें केंद्र पोषित योजनाओं के रूप में मिलने वाली मदद की हिस्सेदारी केवल तीस फीसद है। चिंताजनक यह कि बजट को लेकर राज्य में अभी तक ऐसी कोई सोच विकसित नहीं हो पाई, जिससे योजनाओं को समय रहते पंख लग सकें। यह स्थिति तब है जब राज्य के माली हालात बेहद पतले हैं। कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। अब तक सरकार पर 45 हजार करोड़ तक कर्ज चढ़ चुका है।

इस साल अप्रैल से लेकर अभी तक सरकार 2700 करोड़ रुपये उधार ले चुकी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि वित्तीय वर्ष में कर्ज का बोझ राज्य के कुल बजट से ज्यादा हो गया है। जाहिर है वित्तीय स्थितियां अनूकुल नहीं हैं। ऐसे में अगर महकमों ने बजट खर्च का अपना लेटलतीफ फामरूला नहीं बदला तो दिक्कतें बढ़ेंगी। केंद्रीय मदद से संचालित योजनाओं पर भी इसका असर पड़ रहा है। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के पहले उत्तराखंड की जनता से डबल इंजन का वादा लेकर राज्य के विकास का सपना दिखाया था। केंद्र इस पर अमल करता भी दिखाई दे रहा है, लेकिन नतीजों की गारंटी के साथ। सूरतेहाल इस पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। विडंबना यह कि राज्य में वित्तीय संसाधनों में बढ़ोत्तरी की फिलहाल कोई संभावना नजर नहीं आ रही है और न ही सरकार को कोई उपाय सूझ रहा है। तस्वीर धुंधली बनी हुई है। पूरे परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो इस स्थिति के लिए सरकारें ही जिम्मेदार हैं।

दरअसल, बजट खर्च की सुस्त चाल पर घुड़की से आगे सरकार ने कभी सोचा ही नहीं। यही वजह है कि यह महकमों का शगल बनता चला गया, जो अब नासूर का सा रूप लेता जा रहा है। कहने में हिचक नहीं कि जवाबदेही और जिम्मेदारी तय करने से सरकारें हमेशा ही किनाराकशी करती रहीं। इस पर सरकार को गंभीरता से मंथन करना चाहिए। विशेषज्ञों की मदद लेकर राज्य को इस भंवर से बाहर निकालने के प्रयास ईमानदारी से होने चाहिए, अन्यथा आने वाले दिनों में सरकार मुलाजिमों को पगार देने की स्थिति में भी नहीं रहेगी।राज्य को बजट के सदुपयोग और केंद्रीय मदद पर निर्भरता कम करने की दिशा में कदम उठाने होंगे। इसके लिए वित्तीय संस्कृति में बदलाव जरूरी है।