दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश पर विधि आयोग की ओर से इस पर विचार किया जाना एक सही कदम है कि अवैध रूप से हिरासत में लिए गए लोगों को मुआवजा देने का कोई कानून बने। इस तरह के कानून बनाने की मांग एक लंबे अर्से से होती चली आ रही है, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा सके। चूंकि भारत में ऐसा कोई कानून नहीं बन सका है इसलिए अवैध रूप से हिरासत में लिए गए लोगों को कोई राहत नहीं मिल पा रही है। इस संदर्भ में कोई कानून बनाने की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि एक बड़ी संख्या में पुलिस बिना किसी ठोस कारण के लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज देती है। ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। गलत रूप से हिरासत में लिए गए लोगों को अदालत से राहत अवश्य मिल जाती है, लेकिन उस क्षति की भरपाई नहीं हो पाती जो उन्हें अवैध हिरासत के रूप में भुगतनी पड़ती है। ऐसे लोग केवल अनावश्यक तौर पर जेल जाने के लिए ही विवश नहीं होते, बल्कि किसी न किसी स्तर पर सार्वजनिक अपमान सहने के लिए भी मजबूर होते हैं। अवैध हिरासत के मामले इसलिए बढ़ रहे हैं, क्योंकि पुलिस सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा पा रहा है। चूंकि पुलिस पर काम का दबाव बढ़ता जा रहा है इसलिए कई बार वह बिना किसी जांच-पड़ताल के ही लोगों को गिरफ्तार कर लेती है। कई बार ऐसा इसलिए भी होता है, क्योंकि यदि जांच-पड़ताल में देरी होती है तो पुलिस पर यह आरोप लगने लग जाता है कि वह मामले को रफा-दफा कर रही है अथवा गंभीरता का परिचय देने से इन्कार कर रही है।
स्पष्ट है कि सारा दोष पुलिस पर ही नहीं डाला जा सकता। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि यदि पुलिस सुधारों से इसी तरह बचने की कोशिश की गई तो समस्याएं और अधिक बढ़ेंगी। विडंबना यह है कि एक ओर जहां पुलिस सुधारों संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन करने से इन्कार किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर ऐसी भी कोई व्यवस्था नहीं की जा रही है जिससे पुलिस के कामकाज को दो हिस्सों में बांटा जाए। पहले हिस्से के तौर पर आपराधिक मामलों की छानबीन का काम पुलिस की एक अलग इकाई को सौंपने और कानून एवं व्यवस्था की निगरानी का कार्य किसी अलग इकाई के हवाले करने की जरूरत एक अर्से से महसूस की जा रही है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही है। आश्चर्यजनक है कि दुनिया के तमाम देशों में पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार किए जाने और यहां तक कि अवैध हिरासत की स्थिति में लोगों को मुआवजा देने के नियम-कानून बन जाने के बावजूद भारत में इस मोर्चे पर कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। ध्यान रहे कि समस्या केवल अवैध हिरासत की ही नहीं, बल्कि हिरासत में प्रताड़ना की भी है। बेहतर हो कि एक और काम बनाने के साथ ही पुलिस की कार्यप्रणाली में जो सुधार आवश्यक हो चुके हैं उन पर भी गंभीरता से ध्यान दिया जाए।

[ मुख्य संपादकीय ]