पलायन का दंश ङोल रहे पहाड़ों के लिए पलायन आयोग की ताजा रिपोर्ट चिंता में डालने वाली है। चिंता इस लिए भी गंभीर है कि पलायन आयोग ने भुतहा गांवों (वीरान गांवों) का जो आंकड़ा पेश किया है वह हैरत में डालने वाला है। वर्ष 2011 से 2018 के बीच सात सौ गांव खाली हो गए, जबकि वर्ष 2011 तक यह संख्या 968 थी। वर्ष 2000 में अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड का उद्देश्य यही था कि अपने प्रदेश में लोगों को शिक्षा, सड़क और रोजगार जैसे सुविधाएं मिलेंगी तो वे पलायन नहीं करेंगे। बावजूद इसके ताजा आंकड़े से साफ है कि सरकारें इस मंशा को पूरा करने में सफल नहीं रहीं। दरअसल, राज्य गठन के एक दशक बाद 700 गांवों का खाली होना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है। आखिर ऐसी नौबत क्यों आ रही है। रिपोर्ट में इस सवाल का जवाब भी है। रिपोर्ट के अनुसार रोजगार के लिए पलायन करने वालों की तादाद 50 फीसद है तो बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए गांव छोड़ने वालों की संख्या 73 फीसद। सरकार चाहे जो दावा करे, लेकिन इसे नकारा नहीं जा सकता कि राज्य बनने के 18 साल बाद भी पहाड़ों में शिक्षा की स्थिति दयनीय बनी हुई है। आलम यह है कि शिक्षक पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं हैं। सरकारी स्कूलों में छात्र-छात्रओं की संख्या लगातार कम होती जा रही है। गुणवत्तापरक शिक्षा को लेकर सरकारी स्कूल आम जन का भरोसा खो चुके हैं।

जाहिर है अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए लोग शहरों की ओर आ रहे हैं। सरकार यह मानकर खुश हो सकती है कि राज्य से बाहर पलायन करने वालों की तादाद महज 29 फीसद है, जबकि विदेश जाने वाले एक फीसद ही हैं, लेकिन अहम पहलू यह है कि लोग गांव छोड़ रहे हैं। इससे शहरों पर दबाव बढ़ रहा है। राजधानी देहरादून की बात करें तो करीब 22 वर्ष में जनसुविधाएं तो महज 14.1 फीसद की दर से बढ़ी हैं, जबकि निर्माण में 5461 फीसद तक का इजाफा हो गया है। निर्माण का यह दबाव हर प्रकार की भूमि पर पाया गया, जिसमें नदी-नाले व पार्क भी शामिल हैं। यह स्थिति सिर्फ देहरादून ही नहीं, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और हल्द्वानी जैसे शहरों के अलावा पहाड़ी नगर पौड़ी, कोटद्वार, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा जैसे शहरों में भी है। सवाल यह है कि यदि नेपाल और बिहार से आए लोग पहाड़ के गांवों में अच्छी आजिविका अर्जित कर पा रहे हैं तो हम क्यों नहीं। जरूरत है तो इस बात की शिक्षा की व्यवस्था को बेहतर किया जाए। यदि पलायन की वजह सामने आ रही है तो इसके उपचार में भी देर नहीं की जानी चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]