देर से आया फैसला: सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला तब आया जब सभी प्रवासी कामगार अपने गांवों को लौट चुके
यह अच्छा नहीं हुआ कि जब लाखों कामगार विषम परिस्थितियों से दो-चार हो रहे थे तब सुप्रीम कोर्ट ने आवश्यक सक्रियता का परिचय नहीं दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का कोई विशेष मूल्य-महत्व नहीं कि प्रवासी मजदूरों को 15 दिनों के अंदर उनके घर भेजा जाए। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला तब आया जब घर लौटने के इच्छुक करीब-करीब सभी कामगार अपने गांवों को लौट चुके हैं? सुप्रीम कोर्ट को इस आशय की खबरों से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि इनमें से कई कामगार अब अपने कार्यस्थलों को वापस लौटने की तैयारी कर रहे हैं। इसी तरह उसे इससे भी परिचित होना चाहिए कि प्रवासी कामगारों की घर वापसी में ट्रेनों की उपलब्धता कोई बड़ी समस्या नहीं रही।
रेलवे की ओर से तो बार-बार यही कहा गया कि राज्य सरकारें बताएं कि उन्हें कामगारों को घर भेजने के लिए कितनी ट्रेनें चाहिए? उसकी ऐसी अपील के बावजूद कई राज्य सरकारों ने सहयोग का परिचय देने से इन्कार किया। वास्तव में इसके चलते ही प्रवासी मजदूरों को तमाम परेशानियों से दो-चार होना पड़ा। यह अच्छा नहीं हुआ कि जब लाखों कामगार विषम परिस्थितियों से दो-चार हो रहे थे और यहां तक कि असहाय-निरुपाय होकर पैदल अपने गांव-घर लौटने को मजबूर थे तब सुप्रीम कोर्ट ने आवश्यक सक्रियता का परिचय नहीं दिया। यदि उसने तभी हस्तक्षेप किया होता तो शायद उन राज्य सरकारों को जवाबदेह बनाने में आसानी होती जिन्होंने अन्य राज्यों के कामगारों की न तो देखभाल की और न ही इसकी परवाह की कि वे अपने घर कैसे लौटेंगे?
यह सही है कि प्रवासी कामगारों की उपेक्षा के मामले में कुछ लोग राजनीतिक इरादों से प्रेरित होकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे, लेकिन उसका दायित्व तो यही था कि वह इस मानवीय समस्या पर नीर-क्षीर ढंग से विचार करता और उसी समय यह देखता कि इस बड़े संकट का समाधान करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें जो कदम उठा रही हैं वे कितने राहतकारी हैं? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह काम समय रहते नहीं हो सका। कम से कम अब तो सुप्रीम कोर्ट को इसकी अनुभूति होनी चाहिए कि यदि फैसले समय पर न दिए जाएं तो वे अपना प्रभाव खो देते हैं।
न्याय वही जो समय पर हो। यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से कहा कि वे अपने गांव-घर लौटे मजदूरों के रोजगार की व्यवस्था करें, लेकिन यह इतना आसान काम नहीं जो उसके निर्देश मात्र से हो जाएगा। अब जब वह रोजी-रोटी की समस्या से जूझ रहे कामगारों के भविष्य की चिंता कर रहा है तब फिर उसे यह बहुत सावधानी से देखना चाहिए कि कुछ राज्यों की ओर से अप्रासंगिक हो चुके श्रम कानूनों में फेरबदल के खिलाफ जो याचिकाएं उसके पास आई हैं उनका निस्तारण कैसे करना है?