[पृथ्वीनाथ पाण्डेय]। यह अक्सर कहा जाता है कि सीखने की कोई अवस्था नहीं होती, जो कि सत्य मान्यता है। हम यदि प्राच्य ग्रन्थों का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि मां के गर्भ में स्थित शिशु भी सीखने का प्रयास करता है, तभी तो सुभद्रा के गर्भ में रहकर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह-बेधन की कला सीख ली थी।

अबोध बच्चे में ग्रहणशीलता अपेक्षाकृत अधिक रहती है। यही कारण है कि वह अच्छाई अथवा बुराई को त्वरित

ग्रहण करता है। आपको यदि अपना बचपन स्मरण हो तो ज्ञात कीजिए कि घर-बाहर के गुणावगुण को आप कितने शीघ्र और सुगमतापूर्वक ग्रहण कर लेते थे। घर-परिवार के बड़े-बूढ़े जो भी पढ़ाते थे;स्मरण कराते थे, आप उनको शीघ्रतापूर्वक आत्मसात् कर जाते थे। ऐसा इसलिए कि तब आपका मन-मस्तिष्क विकारयुक्त नहीं

होता था और आपकी ग्राह्यसामथ्र्य उत्कृष्ट कोटि की होती थी।

आज, जब स्वयं को युवावस्था में पाते हैं तब अपने घर-परिवार और आस-पास की समस्याओं से इतने ग्रस्त रहते हैं कि अपने मूल उद्देश्य से रहित होने लगते हैं और आपका मन-मस्तिष्क विकेंद्रित होने लगता है। इसका प्रभाव यह होता है कि आप सीखने की प्रक्रिया के साथ जुड़ नहीं पाते। ऐसा इसलिए भी होता है कि आप अपने मूल उद्देश्य ‘अध्ययन’ से भटक जाते हैं, फिर सीखने-जैसी कोई बात रह ही नहीं जाती।

सीखता वह है, जो स्वयं को अपूर्ण मानता है और जीवन-संसार में बहुत-कुछ सीखकर स्वयं को शीर्ष पर प्रतिष्ठित होते देखना चाहता है। सीखने अथवा शिक्षण-पद्धति के अंतर्गत अनेक विषय-भाषा, साहित्य, संगीत, कला, क्रीड़ा, विज्ञान आदि होते हैं, जिसे हमारे विद्यार्थियों के लिए सीखना अपरिहार्य होता है; क्योंकि जीवन की डगर में कब-किस ज्ञान की कहां आवश्यकता आ पड़े, कोई नहीं जानता है।

इसके लिए हमारे विद्यार्थियों में सीखने के प्रति ललक और लालसा होनी चाहिए, जो उसे परिपक्व बनाती हैं। हमें जब यह ज्ञात है कि सीखने के लिए कोई अवस्था नहीं होती तब यह भी जान लेना चाहिए कि सिखानेवाले की भी कोई अवस्था नहीं होती। ऐसा हमने अपने जीवन और आसपास के वातावरण से सीखा है। वह यह कि हम जब कोई भूल करते हैं; हम जब कोई कार्य असावधानीवश करते हैं, तब हमारी अवस्था से बहुत कम अवस्था का व्यक्ति भी हमारा पथप्रदर्शन करता है।

ऐसे में, हमारा दायित्व बनता है कि हम उस व्यक्ति के बताये मार्ग पर चलें। इस प्रकारवह हमारा ‘शिक्षक’ होता है। मैं अपना अनुभव बताऊं, मैं ‘प्रकृति’ को अपना ‘वास्तविक गुरु’ मानता हूं; क्योंकि प्रकृति ऐसी गुरु है, जो हमें देती ही है; हमसे कुछ लेती नहीं। हमारा देश महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानता है; परंतु उनके द्वारा बताई गई राह पर चलता नहीं।

देश के नागरिक यह पढ़ते तो हैं- महात्मा गांधी ने आजीवन सत्य, अहिंसा तथा प्रेम का पाठ पढ़ाया; परंतु खेद है कि हम उसे केवल ‘तोते’ की तरह कंठस्थ तो कर लेते हैं; किंतु उसे सीख नहीं पाते। इसलिए हमारे विद्यार्थियों को चाहिए कि वे अपनी इच्छाशक्ति को सुदृढ़ करें।

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