इससे इन्कार नहीं कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35-ए हटने के बाद वहां के हालात बदले हैैं, लेकिन अभी और भी बदलाव लाने और साथ ही एक ऐसा माहौल कायम करने की जरूरत है जिससे कश्मीरी पंडितों की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो सके। किसी को भी इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि कश्मीरी पंडित अपने घरों को वापस लौटने की बाट जोह रहे हैैं। उनके निष्कासन के 30 साल बाद यह जो उम्मीद जगी है कि वे अपने घर-बार लौट सकते हैैं उसे पूरा करने की जरूरत है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए कश्मीर के लोगों को भी आगे आना चाहिए।

कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से बाहर निर्वासित जीवन जीना कश्मीरियत के लिए कलंक है। उस कश्मीरियत का कोई मतलब नहीं जिसमें कश्मीरी पंडितों के लिए कोई स्थान न हो। इस बात को कश्मीर के साथ शेष देश के लोगों को भी समझना होगा। यह अच्छा नहीं हुआ कि बीते 30 सालों में अपने ही देश में निवार्सित जीवन जी रहे कश्मीरी पंडितों की वापसी के पक्ष में वैसी आवाज नहीं उठी जैसी उठनी चाहिए थी। इससे बड़ी त्रासदी और कोई नहीं हो सकती कि कोई समुदाय अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर हो जाए।

यह देखना दुखद है कि आज जब कश्मीरी पंडित घाटी से अपने निष्कासन के खौफनाक मंजर को बयान करने के साथ ही अपने घरों को लौटने की उम्मीद रेखांकित कर रहे हैैं तब देश का राजनीतिक नेतृत्व एक स्वर से यह कहने के लिए तैयार नहीं दिखता कि उनकी इस स्वाभाविक अपेक्षा को पूरा करने के लिए हर संभव कदम उठाए जाने चाहिए। आखिर कश्मीरी पंडितों की वापसी का अधूरा काम देश का साझा संकल्प क्यों नहीं बन सकता? जो भी हो, केंद्र सरकार को तो यह स्मरण रखना ही चाहिए कि कश्मीरी पंडितों की वापसी का उसका संकल्प अभी शेष है। इस अधूरे संकल्प का संज्ञान उन केंद्रीय मंत्रियों को भी लेना चाहिए जो जम्मू-कश्मीर के लोगों को भरोसा दिलाने और वहां की समस्याओं को जानने-समझने एवं उनका निस्तारण करने के लिए वहां जा रहे हैैं।

केंद्रीय मंत्रियों का जम्मू-कश्मीर दौरा एक ऐसे समय हो रहा है जब वहां संचार सुविधाओं पर लगी पाबंदी में ढील देने का काम भी शुरू हो गया है। संचार सुविधाओं की पूरी तौर पर बहाली बहुत कुछ सुरक्षा के हालात पर निर्भर करेगी। जम्मू-कश्मीर और खासकर घाटी के सुरक्षा माहौल को बेहतर बनाने में एक बड़ी भूमिका वहां के आम लोगों की भी है। उन्हें इस मामले में सक्रियता दिखानी चाहिए ताकि पहले से हतोत्साहित अलगाव एवं आतंक के समर्थकों को यह समझ आए कि अब उनकी दाल गलने वाली नहीं है।