जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने राज्य का झंडा एवं संविधान लौटाने की मांग करके अलगाववाद की पैरवी करने के साथ ही पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाने का ही काम किया है। उन्होंने जम्मू-कश्मीर का पुराना झंडा हाथ में लेकर अलगाव और आतंक की जमीन तैयार करने वाले अनुच्छेद 370 को बहाल करने की मांग करके उन कारणों को सही ही साबित किया, जिनके चलते उन्हेंं लंबे समय तक नजरबंद रखा गया। उन्हेंं जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ देश के हितों की किस तरह कहीं कोई परवाह नहीं, इसका पता उनकी इस धमकी से चलता है कि पुरानी व्यवस्था बहाल न होने तक वह किसी चुनावी प्रक्रिया में भाग नहीं लेंगी। वह ऐसा न करें तो उनकी मर्जी, लेकिन उन्हेंं इसकी इजाजत बिल्कुल नहीं दी जा सकती कि वह लोगों को भड़काने के साथ राष्ट्र की भावनाओं को आहत करने का काम करें।

यह महज दुर्योग नहीं कि महबूबा मुफ्ती उन फारूक अब्दुल्ला के साथ खड़ी हैं, जो चीन की मदद से अनुच्छेद 370 की वापसी का सपना देख रहे हैं। यह अच्छा हुआ कि इस तरह का बुरा सपना देखने वालों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह दो टूक जवाब दिया कि इस अनुच्छेद की वापसी किसी भी सूरत में नहीं होने वाली। यह जवाब इसलिए जरूरी हो गया था, क्योंकि पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चिदंबरम ने भी विभाजनकारी और भेदभाव को संरक्षण देने वाले अनुच्छेद 370 की तरफदारी की थी।

चूंकि अब यह स्पष्ट है कि महबूबा मुफ्ती और फारूक अब्दुल्ला जैसे नेता अपने जहरीले और राष्ट्रविरोधी बयानों से कश्मीर का माहौल खराब करने का काम कर सकते हैं, इसलिए उनकी गतिविधियों पर कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए। वास्तव में अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद कश्मीर के सामान्य होते माहौल को जो भी बिगाड़ने का काम करे, उसके खिलाफ सख्ती बरतने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए।

नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं के भारत विरोधी और पाकिस्तान एवं चीन समर्थक रवैये से यह साफ है कि उनकी विचारधारा एक तरह से वही है जो आतंकी और नक्सली संगठनों की है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि इन दलों के लिए जम्मू-कश्मीर का मतलब केवल घाटी है और वे उसे अपनी निजी जागीर समझ बैठे हैं। हैरत नहीं कि इसी कारण वे जब-जब सत्ता में आए, तब-तब उन्होंने जम्मू और लद्दाख की घोर उपेक्षा की। ऐसे राजनीतिक दलों से न केवल भारत सरकार को सावधान रहना होगा, बल्कि कश्मीर के लोगों को भी। इसका कोई औचित्य नहीं कि अब्दुल्ला और मुफ्ती जैसे कश्मीरी नेता लोकतंत्र की आड़ में राष्ट्रविरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाएं।