सिख विरोधी दंगों के दौरान दिल्ली में हुई भीषण हिंसा के एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय की ओर से कांग्रेस के नेता सज्जन कुमार को उम्र कैद की जो सजा सुनाई गई उससे इंसाफ की उम्मीद बलवती होने के साथ ही कुछ गंभीर सवाल भी उठ खड़े हुए हैैं। कुछ सवाल तो इस फैसले के दौरान की गई टिप्पणियों में ही निहित हैैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने न केवल यह पाया कि 1984 के सिख विरोधी दंगे आजादी के बाद के सबसे बडी हिंसा थी, बल्कि यह भी कि इस दौरान पूरा तंत्र फेल हो गया था। क्या इस फेल तंत्र के लिए जिम्मेदार लोग जवाबदेही के दायरे में लाए जा सकेंगे?

उच्च न्यायालय के अनुसार सज्जन कुमार को राजनीतिक संरक्षण हासिल था और उनके खिलाफ मामलों को दबाने के बड़े पैमाने पर प्रयास हो रहे थे, यहां तक कि उन्हें दर्ज भी नहीं किया जा रहा था। आखिर कौन थे ये लोग? क्या इनकी पहचान नहीं होनी चाहिए? इन लोगों के कांग्रेसी नेता या फिर उनके करीबी होने में कोई संदेह नहीं हो सकता। यदि सज्जन कुमार को सजा के फैसले से कांग्रेस शर्मसार है तो इसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार है। यह किसी से छिपा नहीं कि उसने सज्जन कुमार जैसे कई नेताओं को यह जानते हुए भी संरक्षण प्रदान किया कि उन पर सिख विरोधी दंगों में सीधे तौर पर शामिल होने के गंभीर आरोप हैैं। ऐसा करके उसने सिख समुदाय के घावों को कुरेदने का ही काम किया। न्याय और नैतिकता का तकाजा यह कहता है कि कम से कम अब तो वह सबक सीखे।

यदि राष्ट्र को शर्मसार करने वाली सिख विरोधी हिंसा, जिसे दंगे के बजाय एक तरह के नरसंहार की संज्ञा दी जानी चाहिए, के लिए प्रत्यक्ष और साथ ही परोक्ष रूप से जिम्मेदार लोग कठघरे में नहीं खड़े किए जाते तो फिर जख्मों को भरना आसान नहीं होगा। यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि सज्जन कुमार को 34 साल बाद सजा सुनाई जा सकी-और वह भी अभी केवल उच्च न्यायालय के स्तर पर। यह सही है कि बीते कुछ समय में सिख विरोधी दंगों के कई मामलों में न्याय हुआ है और हाल में एक शख्स को फांसी की भी सजा हुई है, लेकिन जरूरी यह है कि सभी लंबित मामलों की सुनवाई तेजी से आगे बढ़े और उनका अंतिम तौर पर भी निस्तारण हो। असामान्य मामलों में असाधारण ढंग से कार्रवाई होनी चाहिए।

सिख विरोधी हिंसा के विभिन्न मामलों के निस्तारण में देरी का औचित्य इसलिए नहीं बनता, क्योंकि यह हिंसा सरे आम हुई थी। हालांकि यह पहले दिन से स्पष्ट था कि दिल्ली के साथ कानुपर और इंदौर में सिखों के खिलाफ हिंसा के लिए जिम्मेदार अपराधियों के खिलाफ जल्द ठोस कार्रवाई तत्कालीन सरकारों की प्राथमिकता में नहीं था, फिर भी न्यायपालिका ने वैसी सजगता और सक्रियता नहीं दिखाई जैसी आवश्यक थी और जो कुछ अन्य मामलों में उसकी ओर से दिखाई भी गई। इस सवाल का जवाब न्यायपालिका ही दे सकती है कि आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सका-और वह भी तब जब यह हिंसा देश के माथे पर एक दाग की तरह चस्पा हुई?