जागरण फोरम के समापन अवसर पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अयोध्या मामले को लेकर पूछे गए सवालों के जवाब में बिना किसी देरी के राम मंदिर निर्माण की इच्छा व्यक्त करते हुए जिस तरह संसद के आगामी सत्र में किसी कानूनी पहल की संभावना से इन्कार भी किया उससे यही प्रतीत हुआ कि मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाह रही है। वर्तमान स्थितियों यही उचित भी है। इसके संकेत इसी फोरम पर गत दिवस उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी यह कह कर दिए थे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवैधानिक तौर-तरीकों के अनुरूप ही चलना होता है। इस सबके बावजूद इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विभिन्न हिंदू संगठन राम मंदिर निर्माण में देरी को लेकर अधीर हो रहे हैं। यह अधीरता इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि पिछले दिनों जब यह उम्मीद की जा रही थी कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले का निस्तारण करने के लिए आगे बढ़ेगा तब उसने सुनवाई टाल दी।

अयोध्या मामले की सुनवाई अगले वर्ष जनवरी तक टालते हुए सुप्रीम कोर्ट की ओर से जैसी टिप्पणी की गई उससे जाने-अनजाने कुछ ऐसा ध्वनित हुआ कि यह मामला उसकी प्राथमिकता में नहीं है। दरअसल इसी के बाद यह मांग तेज हुई है कि दशकों पुराने इस मामले का निस्तारण कानून बनाकर किया जाए और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया जाए। इस मांग पर बल देने के लिए पहले अयोध्या में एक जुटान हुई और अब दिल्ली में होने जा रही है। ऐसा नहीं लगता कि इस सिलसिले को रोका जा सकता है। दूसरी ओर इसके प्रति सुनिश्चित भी नहीं हुआ जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले का निस्तारण जल्द कर देगा।

इस पर आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट आस्था से जुड़े अयोध्या मामले पर फैसला देने से बचना चाह रहा हो। इसके अच्छे-भले आसार हैं कि पराजित पक्ष सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर सकता है। यदि इस संभावित विरोध और उसके चलते होने वाले सामाजिक उद्वेलन के कारण सुप्रीम कोर्ट अयोध्या मामले में फैसला देने से हिचक रहा हो तो यह स्वाभाविक है। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा हो कि उसके लिए अयोध्या मामला जमीन से जुड़ा मालिकाना हक संबंधी विवाद का है, लेकिन हर कोई इससे परिचित है कि यह एक आस्था से जुड़ा मामला ही है। इन स्थितियों में बेहतर यही है कि सदियों पुराने इस मामले का हल आपसी बातचीत के जरिये निकालने की एक कोशिश और की जाए।

यदि कोशिश ईमानदारी से की जाए तो वह कामयाब भी हो सकती है। ऐसी कोई कोशिश करने के पहले ऐसे सवालों पर विचार किया जाना आवश्यक है कि आखिर इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता के प्रतीक एवं पर्याय भगवान राम का मंदिर उनके जन्मस्थान अयोध्या में नहीं बन सकता तो और कहां बन सकता है? विचार इस पर भी होना चाहिए कि बाबर का राम की नगरी अयोध्या से क्या लेना-देना? आखिर इसकी अनदेखी क्यों की जा रही है कि जिन इकबाल ने यह लिखा था कि सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा उन्हीं ने राम को इमाम-ए-हिंद भी कहा था?