आखिरकार साल भर से अधिक चले कृषि कानून विरोधी आंदोलन को खत्म करने की घोषणा कर दी गई। अच्छा होता यह काम और पहले किया जाता और विशेष रूप से कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद। इस आंदोलन का आवश्यकता से अधिक लंबा खिंचना किसान संगठनों और सरकार के बीच के अविश्वास को ही व्यक्त करता है। आशा की जाती है कि अविश्वास की यह खाई पटेगी और सरकार, कृषि विशेषज्ञ एवं देश भर के किसानों के प्रतिनिधि आपस में विचार-विमर्श करके ऐसे निर्णयों तक पहुंचेंगे, जो खेती के साथ किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभकारी होंगे।

भले ही सरकार किसान संगठनों की जिद के चलते कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए बाध्य हुई हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि कृषि सुधारों की आवश्यकता नहीं रह गई है। सच तो यह है कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद यह आवश्यकता और अधिक बढ़ गई है। इसका आभास आंदोलन की राह पर चले किसान संगठनों को भी हो तो अच्छा। इन किसान संगठनों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी समेत जिन विषयों पर विचार करने के लिए तैयार हो गई है, उन पर वैसे ही निर्णय लिए जाएंगे, जैसे वे चाह रहे हैं। उन्हें यह भी स्मरण रखना होगा कि उनके आंदोलन में देश भर के किसानों की भागीदारी नहीं थी और तमाम किसान ऐसे थे, जो कृषि कानूनों को अपने लिए उपयोगी मान रहे थे।

यह सही है कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए, लेकिन इसमें संदेह है कि ऐसा एमएसपी की उस व्यवस्था से हो सकेगा, जिसे बनाने की मांग किसान संगठन कर रहे हैं। एमएसपी पर जैसे गारंटी कानून की पैरवी की जा रही है, वैसा कोई कानून किसान हितों को क्षति पहुंचाने और साथ ही महंगाई बढ़ाने वाला भी साबित हो सकता है। इसी तरह यदि किसान संगठन यह चाहेंगे कि उन्हें पराली जलाने की छूट मिलती रहे तो यह न केवल कृषि के लिए नुकसानदायक साबित होगा, बल्कि पर्यावरण के लिए भी।

किसान संगठन यह भी चाहते हैं कि प्रस्तावित बिजली विधेयक में किसानों पर असर डालने वाले मुद्दे बाहर रखे जाएं। इस तरह की मांगों से यही लगता है कि किसान संगठन केवल अपने हितों की चिंता कर रहे हैं। यह सही रवैया नहीं। सरकार ने किसान नेताओं की यह मांग भी मान ली है कि उन पर दर्ज मुकदमे वापस लिए जाएंगे। इस संदर्भ में यह स्पष्ट होना चाहिए कि क्या वे मामले भी वापस लिए जाएंगे, जो गंभीर प्रकृति के थे? इस सबके साथ ही इस सवाल का भी जवाब मिलना चाहिए कि आखिर लोगों को बंधक बनाकर किए जाने वाले आंदोलन कितने सही हैं?