लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर विधि आयोग की ओर से बुलाई गई बैठक के पहले दिन राजनीतिक दलों के रुख-रवैये से यही संकेत मिला कि उन्हें एक साथ चुनाव का सुझाव रास नहीं आ रहा। तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि ने तो यहां तक कह दिया कि यह सुझाव अव्यावहारिक होने के साथ-साथ असंवैधानिक भी है। लगता है उन्होंने इस तथ्य से अनभिज्ञ रहना ही उचित समझा कि 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ ही होते थे। क्या जब ऐसा होता था तो कोई असंवैधानिक काम होता था?

गोवा में भाजपा के सहयोगी दल ने एक साथ चुनाव की पहल का विरोध किया तो पंजाब में उसके पुराने सहयोगी अकाली दल ने समर्थन किया। पता नहीं पक्ष-विपक्ष के अन्य अनेक राजनीतिक दल इस मसले पर क्या कहते हैं, लेकिन इसके ही आसार हैं कि अधिकांश एक साथ चुनाव के प्रति अनिच्छा प्रकट कर कर्तव्य की इतिश्री कर सकते हैं।

वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि इक्का-दुक्का राजनीतिक दलों को छोड़कर अधिकांश का यही विचार रहा है कि एक साथ चुनाव की पहल सही नहीं। उनका एक साझा तर्क यह है कि एक साथ चुनाव होने से क्षेत्रीय दल घाटे में रहेंगे। इस तर्क को पूरी तौर पर निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन ऐसे उपाय किए जा सकते हैं जिससे लोकसभा के साथ ही विधानसभाओं के चुनाव कराने से क्षेत्रीय दलों को कोई नुकसान न हो। नि:संदेह ऐसा तभी संभव है जब विभिन्न राजनीतिक दल एक साथ चुनाव की चर्चा के प्रति न्यूनतम गंभीरता प्रदर्शित करें। यदि बहस में ढंग से शामिल होने से ही इन्कार किया जाएगा तो फिर किसी आम सहमति पर पहुंचने का सवाल ही नहीं उठता।

यह ठीक नहीं कि राष्ट्रीय महत्व के एक गंभीर सुझाव पर ज्यादातर राजनीतिक दल अगंभीरता का परिचय दे रहे हैं। सच तो यह है कि राजनीति और चुनाव से संबंधित सुधारों के मामले में राजनीतिक दल ऐसा ही करते रहे हैं। अगर राजनीतिक तौर-तरीकों और चुनाव प्रक्रिया से संबधित सुधार लंबित पड़े हुए हैं और सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ रहा है तो राजनीतिक दलों के नकारात्मक रवैये के कारण ही।

समझना कठिन है कि राजनीतिक दल समय के साथ बदलाव के लिए तैयार क्यों नहीं? नि:संदेह एक साथ चुनाव की पहल का परवान चढ़ना आसान काम नहीं, लेकिन यह ऐसा भी विचार नहीं जिसे अमल में लाना असंभव हो। आखिर अतीत में एक साथ चुनाव होने को एक नजीर की तरह क्यों नहीं देखा जा रहा है? कुछ संवैधानिक संशोधनों के साथ लोकसभा चुनाव संग विधानसभाओं के चुनाव करना संभव है।

जो संभव है उस पर आनाकानी इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि रह-रह कर होने वाले चुनाव अब एक व्याधि बन गए हैं। वे न केवल देश की तरक्की में बाधक हैं, बल्कि राजनीतिक माहौल में नकारात्मकता भी भर रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे राष्ट्रीय संसाधनों पर बोझ भी बन गए हैं। बेहतर होगा कि जो राजनीतिक दल एक साथ चुनाव के प्रति सकारात्मक राय रखते हैं वे अपनी सक्रियता बढ़ाएं और राजनीति के साथ ही देशहित में ऐसा माहौल बनाएं जिससे इस मसले पर सार्थक बहस हो सके।