संसद के मानसून सत्र की तिथि घोषित होते ही पिछले बजट सत्र की याद आ जाना स्वाभाविक है। बजट सत्र ने नाकामी का इतिहास रचने के साथ ही संसदीय परंपरा को श्रीहीन करने का भी काम किया था। जहां वित्त विधेयक बिना बहस के पारित हुआ था वहीं दोनों सदनों में कोई खास विधायी कामकाज भी नहीं हो पाया था। बजट सत्र के दूसरे चरण में तो दोनों सदनों में करीब-करीब हर दिन नारेबाजी होती थी और कई बार यह पता ही नहीं चलता था कि नारेबाजी करने वाले दलों के सांसद चाहते क्या हैं? इस सत्र के आखिरी दिनों में यह भी दिखा था कि विपक्ष की तरह सत्तापक्ष भी संसद चलाने के लिए इच्छुक नहीं, क्योंकि विपक्षी दल अविश्वास प्रस्ताव पर जोर दे रहे थे। चूंकि दोनों पक्ष एक-दूसरे को संसद न चलने का दोषी बताते रहे इसलिए आम जनता के लिए समझना कठिन हो गया कि आखिर संसद किस कारण ठहरी है? कहना कठिन है कि 18 कार्य दिवसों वाले मानसून सत्र में क्या होगा, लेकिन आसार अच्छे नहीं दिख रहे हैं। कर्नाटक में सरकार बना लेने और उपचुनावों में भाजपा से बेहतर प्रदर्शन करने के चलते विपक्ष कहीं अधिक उत्साहित तो है ही, वह आगामी आम चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनने की संभावनाएं भी देख रहा है। निराशाजनक यह है कि वह पहले से कहीं अधिक नकारात्मकता से भी भरा हुआ नजर आ रहा है। हैरत नहीं कि वह बजट सत्र की तरह मानसून सत्र को भी बाधित करने की कोशिश करे।

अगर विपक्षी दल संसद में कोई कामकाज न होने देने पर अड़ जाते हैं तो फिर वही हो सकता है जो बीते सत्र में हुआ था। सत्तापक्ष को विपक्ष के असहयोग भाव से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए। उसे ऐसी कोई रणनीति बनानी होगी जिससे जरूरी विधायी कामकाज पूरे हो सकें। नि:संदेह मोदी सरकार के कार्यकाल के चार वर्ष पूरे होने के साथ ही राजनीति चुनावी माहौल में प्रवेश कर गई है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संसद में कोई काम ही न होने दिया जाए। संसद को बाधित करने का मतलब है देश को आगे बढ़ने से जानबूझकर रोकना। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि हमारे राजनीतिक दल ही देशहित को हाशिये पर रखें। बेहतर हो कि सभी दल इस भाव का वास्तव में परिचय दें कि दल से बड़ा देश है। उन्हें अपनी छवि और जनहित के साथ ही संसद की मर्यादा की भी चिंता करनी चाहिए। न चलने वाली संसद अपनी गरिमा की रक्षा नहीं कर सकती। यदि मानसून सत्र में प्रस्तावित विधेयकों पर अपनी अलग राय अथवा असहमति के नाम पर विपक्ष उन्हें पेश होने की ही नौबत नहीं आने देता तो यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ काम होगा। इसका कोई औचित्य नहीं कि दलगत राजनीतिक मतभेदों या फिर चुनावी समीकरण दुरुस्त करने के नाम पर संसद राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न मसलों पर विचार-विमर्श करने और कानून बनाने का अपना मूल काम ही न कर सके। यह वक्त की मांग और जरूरत है कि सत्तापक्ष और विपक्ष मानसून में मिलकर काम करने के किसी एजेंडे पर सहमत हों।