जिन उद्देश्यों को लेकर झारक्राफ्ट का गठन और उसका पोषण किया गया, वह अफसरों की खींचतान में कहीं न कहीं आहत हो रहा है। इस समय इसके शीर्ष पदाधिकारियों के बीच उपजे विवाद ने इस संगठन की नेक-नीयत पर प्रश्नचिह्न् लगाया है। 12 वर्ष पहले 2006 में जब झारक्राफ्ट का गठन हो रहा था, तब यह ध्येय सामने रखा गया कि इसके क्रियाशील होने से जहां झारखंड के बुनकरों और हस्तशिल्प कारीगरों को अंतरराष्ट्रीय बाजार मिलेगा, वहीं यहां की पुरातन कारीगरी को संरक्षण। ऐसा हुआ भी। झारक्राफ्ट ने जहां खुद के कई विक्रय केंद्र बनाए, वहीं कई प्रांतों में लगने वाले हस्तशिल्प मेले में अपने बैनर तले यहां के कारीगरों को कारीगरी के प्रदर्शन का बेहतर मौका दिया। ताजा विवाद कंबल बुनकरों के पैसे को लेकर ही है। विवाद इतना गहरा हो चुका है कि सीईओ स्तर की अधिकारी को इस्तीफा देना पड़ा है। बात यहीं नहीं रुकी है। इस्तीफा देने वाली सीईओ रेणु गोपीनाथ पणिक्कर ने यह आरोप भी मढ़ा है कि तत्कालीन प्रबंध निदेशक के रविकुमार ने कमीशन की नीयत से बुनकरों के साढ़े चार करोड़ के बकाये का भुगतान नहीं किया है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है।

बात मुख्यमंत्री सचिवालय तक पहुंची है। इस पर सरकार को तुरंत कठोर कदम उठाना चाहिए। बड़े उद्देश्य के साथ 12 साल से दिन-रात मेहनत कर झारखंड के बुनकरों ने इस संगठन को बनाया-संवारा है। ऐसा न हो कि अफसरों की आपसी खींचतान में इसका बंटाधार हो जाए। इस संगठन की पहुंच सूबे के बड़े हिस्से से है। आरोप-प्रत्यारोप के बीच यह भी सामने आया है कि डेढ़ लाख साड़ी का आर्डर झारक्राफ्ट को न देकर मफतलाल जैसी निजी कंपनी को दिया गया है। यदि इतनी साड़ी का आर्डर आया होता तो यह पैसा सीधे बुनकरों के परिवार को जाता। यह कहा जा रहा है कि कंबल की बुनाई ही सवालों के घेरे में है। जो कुछ भी हुआ हो उसकी आंतरिक जांच होनी चाहिए। बुनकरों का भला और सूबे की कारीगरी का सम्मान बनाते और बचाते हुए झारक्राफ्ट का बना रहना बेहद जरूरी है। यह बुनकरों की आजीविका का पोषक केंद्र तो है ही, झारखंड की कारीगरी में श्रीवृद्धि करने का औजार भी है। इस मामले में मुख्यमंत्री कार्यालय को भी शीघ्र हस्तक्षेप करना चाहिए, ताकि दोषियों को चिह्न्ति कर कार्रवाई की जा सके।

[ स्थानीय संपादकीय: झारखंड ]