संजय गुप्‍त। अक्‍टूबर माह के जीएसटी संग्रह ने यह साबित कर दिया कि कोविड से प्रभावित भारत की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है। अक्टूबर में जीएसटी संग्रह 1.30 लाख करोड़ रुपये से अधिक का रहा। यह पिछले अक्टूबर के मुकाबले 24 प्रतिशत ज्यादा रहा। चूंकि जीएसटी के दायरे के बाहर भी अर्थव्यवस्था के तमाम पहलू हैं और यदि उन्हें भी देखा जाए तो आर्थिक प्रगति में सुधार साफ दिखेगा। जीएसटी संग्रह में वृद्धि तब देखने को मिली, जब आटोमोबाइल सरीखे कई सेक्टर अपेक्षित प्रगति नहीं कर रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था में आटोमोबाइल उद्योग का एक बड़ा योगदान है, लेकिन चिप और कुछ अन्य आयातित उत्पादों की कमी के कारण वाहनों का उत्पादन धीमा है। इसका कुछ न कुछ असर जीएसटी संग्रह पर अवश्य पड़ा होगा। अभी टूरिज्म, रेस्त्रां, होटल और एविएशन इंडस्ट्री भी पूरी तरह पटरी पर नहीं आई है। अंतरराष्ट्रीय पर्यटन ठहरा हुआ सा है और इस कारण विदेशी पर्यटक बहुत कम संख्या में भारत आ रहे हैं। घरेलू पर्यटन ने अवश्य तेजी पकड़ ली है, लेकिन तमाम एयरलाइंस पूरी क्षमता से नहीं चल रही हैं। इसी तरह दिल्ली सहित कुछ बड़े शहरों में जमीन-जायदाद का कारोबार तो ढर्रे पर आता दिख रहा है, लेकिन छोटे-मझोले शहरों में अभी ऐसा नहीं हो रहा है।

अपने देश की एक बहुत बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है और इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल से ही किसानों को सीधे उनके खाते में किसान सम्मान निधि समेत तमाम तरह के अनुदान देने का जो सिलसिला कायम किया, उसका असर भी अब दिखने लगा है। सीधे खाते में धन देने की व्यवस्था से किसानों के साथ गरीबों को भी राहत मिली है। इसके बाद भी किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य अभी दूर है। जीएसटी संग्रह को देखते हुए ही केंद्र सरकार ने लगातार महंगे हो रहे पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क कम किया। इसके बाद भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकारों ने इन पेट्रोलियम उत्पादों पर वैट घटाया। इससे लोगों को राहत मिली। पेट्रोल और डीजल के बढ़ते दामों पर राजनीति करने वाले कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की सरकारों ने प्रारंभ में पेट्रोल और डीजल पर से वैट कम करने में आनाकानी की, लेकिन चौतरफा आलोचना के बाद उन्होंने ऐसा करना शुरू कर दिया है। कुछ राज्य सरकारें अभी भी ऐसा करने से बच रही हैं। यह आश्चर्य की बात है कि जो विपक्षी दल पेट्रोल और डीजल के दामों को लेकर केंद्र सरकार को घेर रहे थे, वही अपने शासन वाले राज्यों में लोगों को राहत देने में आनाकानी करते दिखे। यह आनाकानी इसीलिए की गई ताकि राजस्व में कमी न आने पाए।

नि:संदेह अर्थव्यवस्था में केंद्र सरकार की योजनाओं का बहुत बड़ा योगदान होता है, लेकिन इसी के साथ राज्यों की अपनी आर्थिक योजनाएं भी उसे गति प्रदान करती हैं। अर्थव्यवस्था लगातार बढ़े, इसके लिए यह जरूरी होता है कि देश के नागरिक जुगाड़ संस्कृति अपनाने से बचें। यह संस्कृति कायदे-कानूनों से बचने के फेर में पनपती है। इससे लोगों का समय या पैसा तो बच सकता है, पर इसके कारण कहीं न कहीं अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है। अपने देश में लाजिस्टिक की लागत विश्व की तमाम अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कहीं अधिक है। वर्तमान में ट्रकों से माल भेजने की जो व्यवस्था है, उसमें अभी बहुत सुधार की आवश्यकता है। माना जा रहा था कि जीएसटी लागू होने के बाद ट्रकों का राज्यों की सीमाओं पर रुकना कम होगा, पर अभी तक ऐसा नहीं हुआ है।

तमाम राज्य सरकारें और उनके नगर निगम टैक्स कलेक्शन के लिए वही पुराना रवैया अपनाए हुए हैं। इससे न केवल समय जाया हो रहा है, बल्कि जाम, प्रदूषण के साथ ईंधन की बर्बादी भी हो रही है। राज्यों की सीमाओं जैसा हाल शहरों के स्तर पर भी है। केंद्र सरकार ने स्मार्ट सिटी योजना को लागू अवश्य किया है, पर इसका कोई खास असर देखने को नहीं मिल रहा है। शहरों में अराजक विकास के साथ अतिक्रमण बढ़ रहा है। इसके कारण ट्रैफिक धीमे चलता है और प्रदूषण बढ़ता है। इससे लोगों के जीवन में तनाव बढ़ता है, जो उनकी सेहत पर असर डालता है। इन सबका दूरगामी प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।

शहरों की स्थितियां सुधारने का सीधा दारोमदार राज्य सरकारों पर है, लेकिन वे वोट बैंक की राजनीति के कारण हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहती हैं। उन्हें समझना होगा कि विकास के नाम पर कुछ फ्लाईओवर बना देने भर से काम चलने वाला नहीं है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था अगले एक-डेढ़ दशक तक आठ-नौ प्रतिशत की दर से चलने की क्षमता रखती है। इसे आराम से 11-12 प्रतिशत तक पहुंचाया जा सकता है, लेकिन इसमें राज्य सरकारों के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपना योगदान देना होगा। आम लोगों को यह समझना होगा कि कायदे-कानूनों पर चलकर ही अर्थव्यवस्था को एक नया आयाम दिया जा सकता है। जब आम नागरिक कायदे-कानूनों से बचने की कोशिश करता है तो इससे अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ता है।

कोविड से प्रभावित अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के बाद भी संकट अभी पूरी तरह टला नहीं है। विश्व के तमाम संपन्न और खासकर पश्चिमी देशों के साथ चीन में महामारी नए सिरे से सिर उठा रही है। भारत की अर्थव्यवस्था काफी हद तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर निर्भर है, इसलिए अन्य देशों की स्थितियों का असर उस पर भी पड़ना स्वाभाविक है। चीन में कोरोना संक्रमण गहराने के कारण समुद्री कंटेनर की किल्लत हो गई है। इसका भी असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। अर्थव्यवस्था लंबे दौर तक आठ-नौ प्रतिशत की दर से बढ़ती रहे, इसके लिए भारत ने चीनी वस्तुओं पर निर्भरता कम करने की तमाम योजनाएं बनाई थीं, लेकिन वे अभी तक कारगर साबित होती नहीं दिख रही हैं।

भारत को चीन से आयात कम करने के साथ अपनी जरूरत की अधिकतम वस्तुओं का निर्माण खुद करना होगा। इसी के साथ उसे उस बाजार तक अपनी पहुंच बढ़ानी होगी, जहां चीन का दबदबा है। इससे विश्व समुदाय की चीन पर निर्भरता को भी कम किया जा सकता है। यदि ऐसा किया जा सके तो निश्चित तौर पर आने वाला समय भारत का होगा। ऐसा ही हो, इसके लिए हर संभव उपाय किए जाने चाहिए।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)