रूस की यात्रा पर गए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का वापसी में अचानक ईरान जाना और अब विदेश मंत्री एस जयशंकर के रूस से पहले तेहरान जाने की सूचना यही बता रही है कि भारत ईरान को चीन के पाले में न जाने देने के लिए कमर कस रहा है। ऐसा करना वक्त की जरूरत भी है। हालांकि भारत और ईरान के रिश्ते दोस्ताना ही रहे हैं, लेकिन अमेरिका के ईरान विरोधी रवैये के कारण इन रिश्तों पर असर भी पड़ा है। इसका पूरा लाभ चीन ने उठाया है। वह बीते कुछ समय से ईरान को उसी तरह अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा है, जैसे उसने पाकिस्तान को अपनी गोद में बैठा रखा है। वह ईरान से सस्ती दरों पर तेल खरीदने के एवज में वहां 400 अरब डॉलर निवेश करने तो जा ही रहा है, उसे हथियारों से लैस करने की तैयारी भी कर रहा है। इसके अलावा ईरान से 25 साल के लिए रणनीतिक समझौते पर भी बात कर रहा है।

ईरान में चीन का बढ़ता असर केवल भारत के लिए ही चिंता का विषय नहीं है। यह सऊदी अरब, इजरायल और अमेरिका के लिए भी है। माना जाता है कि पश्चिम एशिया में ईरान के असर को कम करने के लिए ही सऊदी अरब के बेहद करीबी देश संयुक्त अरब अमीरात ने इजरायल से दोस्ती की है।

यद्यपि भारत के सऊदी अरब और इजरायल के साथ अमेरिका से भी बेहतर संबंध हैं, लेकिन यह ठीक नहीं होगा कि ईरान चीन के खेमे में चला जाए। बेहतर हो कि भारत अमेरिका के समक्ष यह रेखांकित करे कि उसकी आक्रामक नीतियां ईरान को चीन की ओर धकेल रही हैं। अमेरिकी प्रशासन को भी यह देखना होगा कि ईरान के मामले में उसकी रीति-नीति को यूरोपीय देशों का समर्थन नहीं मिल पा रहा है। यदि ईरान चीन का वैसा ही पिछलग्गू बन जाता है, जैसे पाकिस्तान और उत्तर कोरिया बन गए हैं तो एक नई धुरी बन जाएगी, जो एशिया की शांति के लिए खतरा ही बनेगी।

भारत को ईरान में अपना प्रभाव केवल इसलिए नहीं बढ़ाना चाहिए ताकि वहां चीन का दखल कम हो सके, बल्कि इसलिए भी बढ़ाना चाहिए, जिससे चाबहार बंदरगाह के जरिये अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच आसान हो सके। भारत को ईरान से अपने रिश्ते मजबूत करने के साथ ही चार देशों के संगठन क्वॉड को सक्षम बनाने पर भी तेजी से आगे बढ़ना चाहिए। चीन से त्रस्त दक्षिण पूर्व एशिया के जो देश क्वॉड से जुड़ने को तैयार हैं, उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। क्वॉड जितना अधिक सक्षम बनेगा, बिगड़ैल चीन पर अंकुश लगाने में उतनी ही सफलता मिलेगी।