गिरगिट की तरह रंग बदलते चीन को यह जवाब देकर भारत ने अपनी आक्रामकता को ही रेखांकित किया कि उसे 1959 के उसके प्रस्ताव वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा न तो पहले स्वीकार थी और न अब है। यह आक्रामकता आपसी संवाद के साथ-साथ सैन्य मोर्चे के स्तर पर भी बनाए रखनी होगी-ठीक वैसे ही जैसे यह कहकर बयान की गई थी कि यदि चीनी सैनिकों ने सीमा पर छेड़छाड़ करने की कोशिश की तो भारतीय सैनिक गोली चलाने में हिचकेंगे नहीं। चीन के नए बेसुरे राग को खारिज करने और उसे उसी की भाषा में दो टूक जवाब देना इसलिए आवश्यक था, क्योंकि वह इस तथ्य को छिपाकर अपनी बदनीयती ही जाहिर कर रहा है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर उसने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जो प्रस्ताव भेजा था, वह खुद उन्होंने भी ठुकरा दिया था। यह अच्छा हुआ कि भारत ने चीन के छह दशक पुराने इस एकपक्षीय प्रस्ताव को मनमाना करार देते हुए सीमा विवाद सुलझाने संबंधी उन समझौतों का भी जिक्र किया, जिनमें 1959 वाले उसके प्रस्ताव को कोई अहमियत नहीं दी गई है।

चीन ने अपने एकपक्षीय और अमान्य करार दिए गए प्रस्ताव का उल्लेख करके यही संकेत दिया है कि वह आसानी से मानने वाला नहीं है। अब इसका अंदेशा और बढ़ गया है कि वह दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच बनी सहमति के आधार पर आगे बढ़ने वाला नहीं है। ऐसे में भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह कोर कमांडर स्तर की पिछली बातचीत में जो सहमति बनी थी कि दोनों देश सीमा पर और अधिक सेनाएं नहीं भेजेंगे, उससे खुद को बंधा हुआ मानकर न चले। चीन ने पिछले तीन-चार माह में जिस तरह सैन्य स्तर पर हुई बातचीत के उलट काम किया है, उससे यही साबित होता है कि उसके इरादे नेक नहीं। उस पर एक क्षण के लिए भी भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। वैसे भी धोखेबाजी उसकी पुरानी आदत है। अब तो वह इस मुगालते से भी ग्रस्त है कि हर मामले में दुनिया को उसी की बात को सही मानना चाहिए। ऐसा तभी होता है जब कोई देश अपनी ताकत के घमंड में चूर हो जाता है।

चीन के अड़ियलपन को देखते हुए उसके समक्ष यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि यदि वह पुराने समझौतों को महत्व देने से इन्कार करेगा तो फिर भारत के लिए भी ऐसा करना संभव नहीं रह जाएगा। यदि चीन लद्दाख और अरुणाचल पर अपना दावा जताना नहीं छोड़ता तो फिर भारत के लिए भी यही उचित होगा कि वह तिब्बत को लेकर उसके साथ हुए समझौते को खारिज करने के लिए आगे बढ़े।