करतारपुर गलियारे को लेकर पाकिस्तान की ओर से जैसा उत्साह दिखाया जा रहा है उससे भारत का उत्साहित होना थोड़ा कठिन है। नि:संदेह इस गलियारे के निर्माण में दोस्ती की तमाम संभावनाएं छिपी हुई हैैं, लेकिन अभी यह चाहकर भी नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तान सचमुच भारत से संबंध सुधार के लिए तैयार है। इस गलियारे की स्थापना के लिए भारत में शिलान्यास समारोह होने के बाद पाकिस्तान ने भी अपनी धरती पर भी ऐसा ही कार्यक्रम आयोजित करके यह प्रदर्शित किया कि वह सिखों की धार्मिक भावनाओं का आदर करने के लिए तैयार है।

इससे बेहतर और कुछ नहीं कि सिख श्रद्धालु करतारपुर गुरुद्वारा साहिब तक आसानी से जा सकें, लेकिन क्या इस अंदेशे की अनदेखी की जा सकती है कि पाकिस्तान करतारपुर गलियारे का दुरुपयोग कर सकता है-और वह भी तब जब उसकी ओर से खालिस्तानी तत्वों को नए सिरे से हवा दी जा रही है? इसकी ओर पहले सेना प्रमुख बिपिन रावत ने संकेत किया और फिर पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने। उनका तो यह तक मानना है कि हाल में निरंकारियों पर जो आतंकी हमला हुआ वह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी की कारस्तानी है।

यदि एक क्षण के लिए करतारपुर में पाकिस्तानी सेना प्रमुख से एक खालिस्तानी समर्थक के मेल-मिलाप की अनदेखी कर दी जाए तो भी इस सच्चाई से कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है कि पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी कश्मीर में आतंकियों की खेप भेजने में लगी हुई है? गत दिवस जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान भारत से दोस्ती की बातें करने में लगे हुए थे तब हमारे सुरक्षा बल कश्मीर में पाकिस्तान से आए लश्कर के एक आतंकी का खात्मा करने में जुटे थे।

करतारपुर में इमरान खान ने एक-दूसरे से युद्ध में उलझने वाले फ्रांस और जर्मनी का उदाहरण देकर यह साबित करने की कोशिश की कि ऐसी ही दोस्ती भारत और पाकिस्तान में हो सकती है। नि:संदेह ऐसा हो सकता है, बशर्ते पाकिस्तान कश्मीर में आतंकी भेजना और हुर्रियत कांफ्रेंस सरीखे संगठनों को आजादी के बुरे सपने दिखाना बंद करे। आखिर पाकिस्तान यह उम्मीद कैसे कर सकता है कि भारत इसकी अनदेखी कर दे कि उसकी सेना किस तरह मसूद अजहर और हाफिज सईद सरीखे आतंकी सरगनाओं को पाल रही है?

चंद दिन पहले जब भारत के साथ दुनिया के अनेक देश मुंबई में हुए भीषण आतंकी हमले का स्मरण करते हुए यह उल्लेख कर रहे थे कि पाकिस्तान किस तरह दस साल बाद भी इस पाशविक हमले के गुनहगारों को दंडित करने के लिए तैयार नहीं तब समूचा पाकिस्तानी नेतृत्व मौन धारण किए बैठा था। आखिर इस मौन को उसकी बदनीयती के अलावा और क्या कहा जा सकता है? पता नहीं नवजोत सिंह सिद्धू इस सब पर गौर करने को तैयार क्यों नहीं? अपनी करतारपुर यात्रा को लेकर उनका उत्साहित होना समझ आता है, लेकिन यह समझ से परे हैै कि वह पाकिस्तान के छल-कपट से अनभिज्ञ होने का बहाना क्यों कर रहे हैैं? यह अच्छा हुआ कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने यह रेखांकित कर दिया कि करतारपुर गलियारे पर आगे बढ़ने का यह मतलब नहीं कि उससे बातचीत शुरू होने जा रही है।