---गौरवशाली इतिहास समेटे नामी-गिरामी विश्वविद्यालय भी अब केवल सुनहरे अतीत को याद कर सकते हैं। ---राज्यपाल राम नाईक का कहना है कि अब तो भ्रष्टाचार का दीमक विश्वविद्यालयों को लग गया है। उनका का कहना सही है लेकिन, शिक्षा के उच्चतम संस्थानों में लगा यह रोग नया नहीं है। देश-दुनिया में मानक स्थापित करने वाले कुछ विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो कुछ संस्थानों ने अपनी स्थापना के कुछ समय बाद ही गिरावट का भी दौर देखना शुरू कर दिया। सबसे पहले छात्र राजनीति के नाम पर पठन-पाठन का माहौल खराब किया गया। धरने-प्रदर्शन, हिंसक गतिविधियों से परीक्षाओं को प्रभावित किया गया। पढ़ाई का सत्र कब शुरू होगा, परीक्षाएं कब होंगी, परिणाम कब जारी होगा, किसी को कुछ पता नहीं चल पाता। फिर धीरे-धीरे विश्वविद्यालय दिखावे के लिए रह गए। गौरवशाली इतिहास समेटे नामी-गिरामी विवि भी अब केवल सुनहरे अतीत को याद कर सकते हैं। बाकी कहने या दिखाने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचा है। राजनीति से जो थोड़ा बहुत कुछ बचा उसे प्राध्यापकों से लेकर कुलपतियों तक की नियुक्ति ले डूबी। चहेतों की नियुक्तियों को लेकर मानक दरकिनार किए जाते रहे। कुलपतियों की नियुक्ति का जोड़तोड़ जगजाहिर है। इतना ही नहीं, प्राध्यापकों की राजनीति और गुटबंदी भी कोढ़ में खाज का काम करती रही। नतीजतन भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। विश्वविद्यालय के विकास के नाम पर करोड़ों का बजट कहां खत्म हो जाता है, किसी को पता नहीं चलता। यही कारण है कि आज अनेक विश्वविद्यालय या तो अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं या उनके पूर्व कुलपति अथवा मौजूदा कुलपति आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे हैं। छवि तो यह बन गई है कि वहां से निकले छात्र को नौकरी के क्षेत्र में संघर्ष करते हुए जलालत झेलनी पड़ती है। मसलन विवि की बदनामी उनका पीछा नहीं छोड़ती है। उनकी डिग्रियों को संदेह की नजर से देखा जाता है। कुल मिलाकर राज्यपाल ने जो चिंता जाहिर की है, वह वाजिब है। सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा। राज्यपाल को रोग का पता है, विश्वविद्यालयों की नाड़ी भी उनके हाथ में है, फिर उनसे बेहतर इलाज भला और कौन कर सकता है। देखना यह है कि इस दिशा में प्रयास कब होते हैं और वे कितनी जल्दी विश्वविद्यालयों को ढर्रे पर ला पाते हैं।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]