आम बजट में शहरी निकायों को आत्मनिर्भर बनाने की पहल यह तो बताती है कि केंद्र सरकार शहरों की दशा सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन बात तब बनेगी, जब राज्य सरकारें भी यह समझेंगी कि शहरीकरण पर उन्हें भी ध्यान देने की आवश्यकता है। आम बजट और इसके पहले आर्थिक सर्वे में सरकार ने यह जो आवश्यकता रेखांकित की कि शहरी निकायों को अपनी क्षमता बढ़ानी होगी, उसकी पूर्ति तब तक संभव नहीं, जब तक राज्य सरकारें अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे नहीं आतीं।

केंद्र सरकार की तरह राज्य सरकारों को यह समझना होगा कि देश के समुचित और तेज विकास के लिए शहरों को संवारना आवश्यक है। यह काम केवल इसलिए नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि शहरी जीवन का स्तर सुधारने की जरूरत है, बल्कि इसलिए भी किया जाना चाहिए, क्योंकि शहर अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करते हैं। अपने देश में कस्बे शहरों में और नगर महानगरों में तो परिवर्तित हो रहे हैं, लेकिन उनमें सुविधाओं का स्तर नहीं सुधर पा रहा है।

भले ही शहरीकरण की बातें खूब होती हों, लेकिन हमारे छोटे-बड़े शहर दुर्दशाग्रस्त ही अधिक हैं। जिन सुविधाओं की आस में लोग शहरों में बसना पसंद करते हैं, वे कठिनाई से ही उपलब्ध हो पाती हैं। इसका कारण है शहरों का अनियोजित और अनियंत्रित विकास। बेतरतीब विकास शहरी जीवन को कष्टकर बनाने के साथ ही उनकी छवि भी बिगाड़ता है।

शहरों की दुर्दशा के लिए मुख्यतः स्थानीय निकाय जिम्मेदार हैं। शहरों को संवारना उनकी प्राथमिकता में मुश्किल से ही शामिल होता है। आम तौर पर शहरी निकाय दलगत राजनीति, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार का अखाड़ा बनकर रह गए हैं। यह अच्छा है कि आम बजट में शहरों में सुविधाएं बढ़ाने के लिए दस हजार करोड़ रुपये के आवंटन के साथ दूसरी और तीसरी श्रेणी के शहरों के विकास के लिए अर्बन इन्फ्रा डेवलपमेंट फंड की स्थापना की गई है, लेकिन शहरों की जैसी स्थिति है, उसे देखते हुए यह पर्याप्त नहीं।

इन स्थितियों में यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि शहरी निकाय आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनें। इसके लिए एक तो उन्हें संपत्ति कर सही तरह से एकत्र करना होगा और दूसरे उपलब्ध कराई जाने वाली सुविधाओं का समुचित शुल्क वसूलना होगा। इसमें सफलता तब मिलेगी, जब इनके एवज में अपेक्षित सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। जब शहरी निकाय ऐसा करने में सक्षम होंगे तभी शहरी लोग उनकी ओर से जारी किए जाने वाले म्युनिसिपल बांड की ओर आकर्षित होंगे। यह ठीक है कि केंद्र सरकार यह चाह रही है कि शहरी निकाय अपना खर्च स्वयं जुटाने में सक्षम हों, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश में ऐसे शहरी निकायों की संख्या 50 से भी कम है, जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक है। स्पष्ट है कि इसे लेकर राज्य सरकारों को भी चिंता करनी होगी।