हिंदी की महत्ता का उल्लेख करते ही किस तरह कुछ हिंदी विरोधी लोग राजनीतिक रोटियां सेंकने में जुट जाते हैं, यह एक बार फिर तब स्पष्ट हुआ जब हिंदी दिवस के अवसर पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की ओर से व्यक्त किए गए इस विचार का विरोध शुरू हो गया कि हिंदी देश को जोड़ने का काम कर सकती है। उनके इस कथन में ऐसा कुछ भी नहीं कि उसका विरोध किया जाए या फिर यह मनमाना निष्कर्ष निकाला जाए कि गैर-हिंदी भाषियों पर हिंदी थोपने की कोशिश हो रही है। क्या यह यथार्थ नहीं कि यदि कोई भाषा देश की संपर्क भाषा बन सकती है तो वह हिंदी ही है? सच तो यह है कि वह संपर्क भाषा के रूप में काम भी कर रही है और प्रभावी भी सिद्ध हो रही है।

गैर-हिंदी भाषी राज्यों के जो नेता अमित शाह के कथन पर कोलाहल कर रहे हैं वे यह देख पाएं तो बेहतर कि उनके यहां भी हिंदी का चलन और उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है। उन्हें इस सत्य से भी परिचित होना चाहिए कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पैरवी उनके अपने लोगों ने की थी। इसका कारण यही था कि वे हिंदी की सामर्थ्य से भली-भांति अवगत थे। बिना विचारे हिंदी विरोध की ध्वजा उठाने को तत्पर नेताओं को इसका भान होना चाहिए कि उनके आचरण से सभी भारतीय भाषाओं का अहित होता है, क्योंकि ऐसे अवसरों पर उन लोगों को सक्रिय होने का अवसर मिल जाता है जो इस मिथ्या धारणा से ग्रस्त हैं कि ज्ञान की भाषा तो अंग्रेजी ही है। ध्यान रहे कि जापान, जर्मनी, इजरायल, चीन आदि इसके ही उदाहरण हैं कि अपनी भाषा में कहीं अच्छे से उन्नति की जा सकती है।

देश की सभी भाषाओं का विकास और विस्तार होना चाहिए, क्योंकि भाषा संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करती है, लेकिन इसी के साथ यह भी समझना होगा कि हिंदी का किसी से बैर नहीं और वह हर भाषा को साथ लेकर चलने की हामी है। वास्तव में इसी कारण हिंदी की उपयोगिता बढ़ी है। इस सबके बाद भी केवल इतने से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि एक लोकप्रिय संपर्क भाषा के रूप में हिंदी अपनी पहचान बनाने में समर्थ है, क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में उसका अपेक्षित उपयोग नहीं हो रहा है। आखिर विज्ञान, तकनीक और अन्य अनेक विषयों की पढ़ाई हिंदी में क्यों नहीं हो सकती? एक प्रश्न यह भी है कि न्यायपालिका और साथ ही सरकारी तंत्र के उच्च स्तर पर हिंदी का उपयोग क्यों नहीं हो पा रहा है? निश्चित रूप से इसका उत्तर हिंदी विरोध की संकीर्ण राजनीति में भी छिपा है।