देश, काल और परिस्थितियां बदलने पर किस तरह मूल्य-मान्यताएं और नियम-कानून भी बदल जाते हैैं, इसका ही उदाहरण है समलैैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला। इस फैसले का असर भारत ही नहीं, भारत के बाहर उन तमाम देशों पर भी पड़ेगा जो भारतीय लोकतंत्र से प्रेरित होते हैैं और जहां समलैैंगिकता को अपराध माना जाता है। स्पष्ट है कि यह बड़े असर वाला एक बड़ा फैसला है। ऐसा कोई फैसला समय की मांग थी, क्योंकि इस धारणा का कोई औचित्य-आधार नहीं कि समलैैंगिकता किसी तरह की विकृति है अथवा भिन्न यौन व्यवहार वाले कमतर नागरिक हैैं। यह फैसला समलैैंगिकों के साथ-साथ भिन्न यौन अभिरुचि वाले अन्य लोगों के लिए भी एक बड़ी राहत लेकर आया है।

यह फैसला इसलिए भी उल्लेखनीय है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस अंश को रद किया जो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए समलैैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करती थी उसी ने 2013 में ऐसा करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि यह काम तो संसद का है। इतना ही नहीं, उसने इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका को भी खारिज कर दिया था।

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय की ओर से 2009 में दिए गए उस फैसले को पलटने का काम किया था जिसमें धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया गया था। एक तरह से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने भूल सुधार करते हुए वही फैसला दिया जो दिल्ली उच्च न्यायालय ने नौ साल पहले ही दे दिया था। इस बीच संसद धारा 377 में संशोधन-परिवर्तन करने का काम कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसके बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मोदी सरकार ने इस मसले पर अपनी राय न देकर एक तरह से यही इंगित किया था कि समलैैंगिकता के अपराध न रहने से उसे हर्ज नहीं। क्या वे प्रगतिशील लोग इस पर गौर करेंगे कि ऐसे संकेत उस भाजपा की सरकार ने दिए जो उनकी निगाह में पुरातन विचारों वाली पार्टी है?

यह सहज ही समझा जा सकता है कि यदि सुप्रीम कोर्ट ने भिन्न यौन अभिरुचि वालों को सम्मान से जीवन जीने के अधिकार के तहत समलैैंगिकता को अपराध के दायरे से मुक्त करने के साथ धारा 377 को पूरी तौर पर खारिज नहीं किया तो इसके पर्याप्त कारण हैैं। इस धारा के वे अंश प्रभावी बने रहने आवश्यक थे जो नाबालिगों से समलैैंगिक संबंध को अपराध की श्रेणी में रखते हैैं। नाबालिगों को यौन शोषण से बचाने के लिए यह सतर्कता बरतनी जरूरी थी।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने समलैैंगिक संबंधों को मान्यता प्रदान कर भारतीय समाज को यही संदेश दिया कि भिन्न यौन अभिरुचि वाले भी आदर और सम्मान से जीने के अधिकारी हैैं, लेकिन समाज के उस हिस्से की धारणा बदलने में कुछ समय लगेगा जो अलग यौन व्यवहार वालों को अपने से इतर और अस्वाभाविक मानता चला आ रहा है। ऐसी सोच रखने वालों को यह समझना होगा कि अलग यौन व्यवहार वाले भी मनुष्य हैैं और उन्हें अपनी पंसद के हिसाब से अपना जीवन जीने का अधिकार है। ऐसी स्वस्थ समझ को बल मिलना ही चाहिए।