मानव-वन्य जीव संघर्ष की भूमि में तब्दील हो चुके उत्तराखंड में हालात इस कदर गंभीर हो चुके हैं कि यहां न इंसान सुरक्षित है और न ही जानवर। ऐसा नहीं है कि यह संघर्ष पहली बार देखने को मिल रहा हो। पहाड़ों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि किसी न किसी रूप में यह संघर्ष हमेशा रहा है। बाघ और गुलदार नरभक्षी होते रहे हैं, लेकिन हाथी व भालू जैसे जीवों का ङ्क्षहसक व्यवहार भी समय-समय पर सामने आता रहा है। बावजूद इसके करीब तीन दशक पहले तक समस्या इतनी विकराल नहीं थी, मानव और वन्य जीव सहअस्तित्व की भावना से अपनी-अपनी हदों में निवास कर रहे थे। बदलते दौर में दोनों के बीच का टकराव भीषण हो चला है। आंकड़ों के आइने में देखें तो हकीकत का कड़वा अहसास होने लगता है। राज्य गठन के बाद से इस संघर्ष में अब तक 405 लोग जान गंवा चुके हैं, जबकि नौ सौ से ज्यादा जख्मी हुए। दूसरी ओर अब हादसों और अन्य वजह से मारे गए बाघों की संख्या 91, गुलदार की 863 और हाथियों की तादाद 273 रही। इतना सब होने के बावजूद सरकार और वन विभाग इसे लेकर शायद ही कभी गंभीर नजर आए हों। नीति नियंता चिंता जताते हैं, मुआवजे का ऐलान करते हैं, जिसको लेने के लिए भी पीडि़त परिवार को एडिय़ां रगडऩीं पड़ती हैं। लेकिन कभी भी इसके लिए ठोस कार्ययोजना सामने नहीं आई। नतीजा पहाड़ से पलायन का सबसे बड़ा कारण ये खौफ भी है। बीते 15 साल में 3000 गांव जनशून्य हो गए। जो लोग गांव में रह गए वे भी भयभीत हैं। खाली गांवों का असर यह रहा कि जंगली जानवरों का खतरा और ज्यादा गहरा गया। पिछले दिनों नैनीताल जिले के रामनगर के पास कार्बेट नेशनल पार्क से सटे गांवों में आतंक का पर्याय बनी नरभक्षी बाघिन के हमलों से गुस्साए ग्रामीण सड़कों पर उतर पड़े। फलस्वरूप विभाग ने उसे नरभक्षी घोषित किया और उसे पकडऩे के लिए देश में सबसे बड़ा अभियान चलाया जा रहा है। पहली बार हेलीकॉप्टर और दो ड्रोन की मदद के साथ दो सौ वन कर्मियों की फौज बाघिन को तलाश रही है। यह अलग बात है कि बाघिन इतनी विशाल टीम को भी चकमा दे दे रही है। पखवाड़े भर से चल रहा अभियान देखकर कम से कम यह तो कहा ही जा सकता है कि वन विभाग को अभी और प्रोफेशनल होने की जरूरत है। हैरत तो यह भी है कि एक-एक वन्य जीव का रिकार्ड रखने का दावा करने वाले विभाग के पास इस बाघिन का कोई रिकार्ड मौजूद नहीं था। दरअसल, समस्या सिर्फ सरकार और विभाग का उपेक्षित रवैया ही नहीं, बल्कि वन्य जीवों के संरक्षण की पैरवी करने वाले कतिपय प्रेमियों की भी है तो आम आदमी भी कम दोषी नहीं। एक पक्ष वन्य जीवों के संरक्षण की पैरवी के लिए अतिवादी रवैया अपना लेता है, लेकिन आम आदमी की सुरक्षा पर जुबां खोलने को तैयार नहीं, वहीं दूसरा पक्ष भी अपनी हद समझे तो समस्या का निदान करने में मदद मिल जाए। सच्चाई यह है कि इस समस्या का हल वैज्ञानिक और तार्किक तरीके से निकाला जा सकता है, बहस मुबाहिसों से नहीं।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]