मानव-वन्य जीव संघर्ष भले ही गंभीर स्थिति में पहुंचता जा रहा हो, लेकिन लगता नहीं कि महकमा अथवा सरकार इसे लेकर गंभीर हों।
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उत्तराखंड में मानव-वन्य जीव संघर्ष चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुका है। राज्य गठन से अब तक 600 से ज्यादा लोग वन्य जीवों के हमले में जान गंवा चुके हैं, जबकि 1200 से अधिक जख्मी हो चुके हैं। पहाड़ तो छोडि़ए शहर भी वन्य जीवों के आतंक से मुक्त नहीं हैं। अल्मोड़ा में बार-बार गुलदार घुसने की घटनाएं किसी को चौंकाती नहीं हैं तो राजधानी देहरादून के आसपास हाथियों का आतंक और ऋषिकेश क्षेत्र में गुलदार की धमक आम हो चुकी है। प्रदेश में जिस तेजी से वन्य जीव आबादी वाले इलाकों का रुख कर रहे हैं उसे देखकर लगता नहीं कि इस संघर्ष पर विराम लगेगा। जाहिर है गंभीर होते हालात में जन आक्रोश बढ़ता जा रहा है। यह लोगों का गुस्सा ही था कि कोटद्वार के घामधार क्षेत्र में पिंजरे में फंसे गुलदार को जिंदा जला दिया तो जौनसार क्षेत्र में बिल्ली परिवार के इस सदस्य को कुल्हाड़ी से काट डाला गया। इतना ही नहीं रुद्रप्रयाग में खेत में काम रही एक महिला पर गुलदार ने हमला किया तो इस वीर नारी ने आत्म रक्षा में गुलदार को मौत की नींद सुला दिया। हालांकि इस संघर्ष में वह बुरी तरह जख्मी हो गई। दरअसल, संघर्ष की मूल वजह तो सर्वविदित है। सिमटते जंगल, प्रवास स्थल व भोजन की कमी और जंगलों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप से यह नौबत आई है। हाथियों के पारंपरिक गलियारे तकरीबन समाप्त हो चुके हैं। जंगल से सटे खेत वन्य जीवों को आकर्षित करते हैं। उस तुर्रा यह है कि जंगल के बीच अक्सर पिकनिक मनाने गए पर्यटक वन्य जीवों की दिनचर्या में खलल डालने से बाज नहीं आते। इससे वन्य जीवों के व्यवहार में भी परिवर्तन आ रहा है। हैरत यह है कि विभाग सब कुछ जानते हुए भी सक्रिय नजर नहीं आता। वन विभाग ने कुछ स्थानों पर आबादी के पास वाले क्षेत्रों में फेंसिंग कराई, लेकिन देखरेख के अभाव में यह तारबाड़ जगह-जगह क्षतिग्रस्त हो चुकी है। पहाड़ी क्षेत्रों में तो यह भी संभव नहीं कि तारबाड़ की जाए, जबकि सर्वाधिक प्रभावित इलाके पहाड़ ही हैं। जाहिर है भूगोल से तारतम्य बैठाते हुए नीति नियंताओं को इस समस्या का समाधान तलाशना होगा। आखिर पारिस्थितिकीय तंत्र को बचाने के लिए वन्य जीवों को बचाना दायित्व है तो इंसान की जिंदगी भी मूल्यवान है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि अब न संभले तो आने वाला समय और भयावह होगा। तब स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो चुकी होंगी।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]