अमेरिका ने 30 करोड़ डॉलर की सहायता रोकने की घोषणा कर पाकिस्तान को एक और झटका तो दिया है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ट्रंप प्रशासन के इस फैसले से पाकिस्तान की नई सरकार और खासकर आतंकी संगठनों को पालने-पोसने वाली उसकी सेना एवं खुफिया एजेंसी की सेहत पर कोई फर्क पड़ेगा। यदि ऐसा कुछ होना होता तो शायद इस वर्ष के प्रारंभ में तभी हो गया होता जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने पाकिस्तान पर धोखा देने का आरोप लगाते हुए उसे दी जाने वाली आर्थिक सहायता रोकने का एलान किया था।

नए वर्ष के पहले दिन अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से किए गए ऐसे दो टूक एलान से पाकिस्तान शर्मिंदा अवश्य हुआ, लेकिन वह अपने रुख-रवैये को बदलने के लिए तैयार नहीं हुआ। आखिर जब पाकिस्तान ने इस वर्ष की शुरुआत में 50 करोड़ डॉलर की अमेरिकी सहायता रुकने की परवाह नहीं की तब फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वह 30 करोड़ डॉलर की सहायता न मिलने पर अपने अड़ियल रवैये का परित्याग कर देगा? नि:संदेह अमेरिका ने अपने विदेश मंत्री की इस्लामाबाद यात्रा के ठीक पहले आर्थिक मदद पर विराम लगाने की मुनादी कर पाकिस्तान को विश्व समुदाय के समक्ष शर्मसार किया है, लेकिन यदि पाकिस्तानी शासकों को अपनी अंतरराष्ट्रीय साख की तनिक भी परवाह होती तो उन्होंने आतंकवाद को अपनी सुरक्षा एवं विदेश नीति का हिस्सा बनाया ही नहीं होता।

विश्व समुदाय कुछ भी सोचता हो, पाकिस्तान को यही लगता है कि जिहादी संगठनों को खाद-पानी देते रहना उसकी एक कारगर रणनीति है। दरअसल इसी कारण वह अफगानिस्तान के साथ-साथ भारत के लिए खतरा बने आतंकी संगठनों को जानबूझकर संरक्षण देने में लगा हुआ है। यह और कुछ नहीं आतंकवाद को दिया जाने वाला खुला समर्थन है। अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी राष्ट्र आतंकवाद को हवा देने की पाकिस्तान की नीति से भली तरह परिचित हैं, लेकिन समस्या यह है कि वे उस पर कोई ठोस कार्रवाई करने के बजाय उसे समझाने-बुझाने में लगे रहते हैं। वे इस उम्मीद में उसे आर्थिक सहायता भी देते रहे कि वह आतंकी संगठनों को गले लगाने से बाज आएगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

पाकिस्तान संभवत: दुनिया का एकलौता ऐसा देश है जिसे आतंकवाद को प्रश्रय देने के एवज में आर्थिक सहायता दी गई है। जहां अमेरिका इस उम्मीद में पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देता रहा कि वह उसके हितों की चिंता करेगा वहीं चीन यह जानते हुए भी उसकी मदद करने में लगा हुआ है कि मूलत: वह एक गैर जिम्मेदार राष्ट्र है। भले ही अमेरिका की ओर से यह कहा गया हो कि पाकिस्तान को आर्थिक सहायता रोकने का उसका फैसला अंतिम है, लेकिन कल को यह संभव है कि यदि इस्लामाबाद उसकी शर्तों पर काम करने की हामी भर दे तो ट्रंप प्रशासन उसे नए सिरे से आर्थिक सहायता देने को तैयार हो जाए। यदि ऐसा कुछ होता है तो ओबामा की तरह ट्रंप भी पाकिस्तान से धोखा खाएंगे।

बेहतर होगा कि इस्लामाबाद के बाद नई दिल्ली आ रहे अमेरिकी विदेश मंत्री से भारतीय नेतृत्व यह सवाल करने में संकोच न करे कि आखिर अमेरिका कब तक पाकिस्तान को दंडित करने से बचता रहेगा?