केंद्रीय कैबिनेट की ओर से नागरिकता संशोधन विधेयक को मंजूरी मिलने के साथ ही उस पर बहस तेज हो जाना स्वाभाविक है, क्योंकि कई विपक्षी दल पहले से ही उसका विरोध कर रहे हैैं। इसी विरोध के कारण मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में इस विधेयक को संसद की मंजूरी नहीं मिल पाई थी। नागरिकता संशोधन विधेयक यह कहता है कि पड़ोसी देशों और खासकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक यानी हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी ही कुछ शर्तों के साथ भारत की नागरिकता पाने के अधिकारी होंगे। विपक्षी दलों के विरोध का आधार यह है कि आखिर पड़ोसी देशों के मुसलमानों को यह रियायत क्यों नहीं दी जा रही है?

इस पर सरकार का तर्क है कि ये तीनों मुस्लिम बहुल देश हैैं और यहां मुसलमान नहीं अन्य पंथों के लोग प्रताड़ित होते हैैं। इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता, लेकिन इसी के साथ यह सवाल खड़ा होता है कि क्या बाहरी देशोंं के लोगों को नागरिकता देने के प्रस्तावित नियम भारत की वसुधैव कुटुंबकम और सर्वधर्म समभाव वाली अवधारणा के अनुकूल होंगे? यह सवाल उठाने वाले यह भी रेखांकित करते हैैं कि भारत तो वह देश है जिसने दुनिया भर के लोगों को अपनाया। यह बिल्कुल सही है, लेकिन क्या इसकी अनदेखी कर दी जाए कि असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेश से आए करोड़ों लोगों ने किस तरह वहां के सामाजिक और राजनीतिक माहौल को बदल दिया है?

इसकी अनदेखी नहीं हो सकती कि असम में केवल 19 लाख घुसपैठियों की पहचान हो पाने के कारण राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का विरोध हो रहा है। इस विरोध की वजह यही है कि बाहरी लोगों के कारण स्थानीय संस्कृति के लिए खतरा पैदा हो गया है। क्या इस खतरे को ओझल कर दिया जाए? क्या आज भारत के पास इतने संसाधन हैैं कि जो भी बाहर से आए उसे यहां की नागरिकता दे दी जाए? आज तो कोई भी और यहां तक कि कम आबादी और भारत से कहीं अधिक समर्थ देश भी ऐसा नहीं करते।

यह सही है कि अगर पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक प्रताड़ित होते हैैं तो वे भारत में ही शरण लेना पसंद करते हैैं, लेकिन विश्व समुदाय के बीच हमें ऐसे देश के तौर पर भी नहीं दिखना चाहिए जो उपासना पद्धति के आधार पर बाहरी लोगों को शरण देने या न देने का फैसला करता है। बेहतर हो कि पक्ष-विपक्ष ऐसे किसी उपाय वाले नागरिकता संशोधन विधेयक पर सहमत हों जिससे राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की भी रक्षा हो। इस क्रम में उन्हें इसे लेकर सतर्क रहना ही होगा कि उदारता आत्मघात का रूप न लेने पाए।