प्रदेश में गैर विकास कार्यों खासतौर पर वेतन, पेंशन और मजदूरी की मदों में बढ़ते खर्च विभिन्न स्तरों पर शाहखर्ची ने सरकार की मुश्किलों में इजाफा कर दिया है। इन खर्चों के बढऩे की रफ्तार की तुलना में राज्य के खुद के संसाधनों में इजाफा होने की गति बेहद धीमी है। यही वजह है कि प्लान और नान प्लान के खर्च की खाई हर साल और चौड़ी होती जा रही है। हालत यह है कि वेतन आदि मदों के खर्चों को पूरा करने में सरकार के पसीने छूट रहे हैं। अब इसकी कीमत जनता को महंगाई की मार के रूप में अदा करनी पड़ रही है। राज्य में पेट्रोल पर न्यूनतम कर की सीमा 17 रुपये किए जाने के बाद यह तय हो गया है कि अब पेट्रोल की कीमतों में तेल कंपनियां ज्यादा गिरावट करती हैं तो उसका अपेक्षित लाभ राज्य की जनता को नहीं मिल पाएगा। सरकार को उम्मीद है कि इससे पेट्रोल से मिलने वाले राजस्व में सुधार होगा। हालांकि डीजल के लिए भी न्यूनतम कर की सीमा तय की गई, लेकिन बाद में इससे हाथ पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ा। पेट्रोल और डीजल से कर राजस्व बढ़ाने की कसरत लंबे अरसे से चल रही है, लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए सरकार ऐसा कोई भी कदम उठाने से गुरेज करती रही। लेकिन, अंतत: पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए गए। इससे पहले जमीन के रजिस्ट्रेशन और स्टांप ड्यूटी में इजाफा किए जाने की मार भी जनता पर ही पड़ी है। दरअसल सरकारी तंत्र की फिजूलखर्ची रोकने को जिस शिद्दत से कोशिश की जानी चाहिए, वह हो ही नहीं पाई। यह दीगर बात है कि सरकार इसके लिए केंद्रीय इमदाद में कटौती का रोना रो रही है। यह कुछ हद तक सही है। 14वें वित्त आयोग की संस्तुतियों ने उत्तराखंड को विशेष दर्जे को सिर्फ शब्दों तक सीमित कर दिया है। हकीकत में इससे मिलने वाले लाभों से राज्य को वंचित किया जा चुका है। विशेष दर्जे के लिए जो मानक तय किए गए हैं, राज्य उन पर अब भी खरा उतरता है। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने विशेष दर्जे का वजूद बचाए रखने को कदम नहीं उठाए हैं। वहीं सामान्य केंद्रीय सहायता, विशेष केंद्रीय सहायता, अतिरिक्त केंद्रीय सहायता और विशेष आयोजनागत सहायता के मद में मिलने वाली धनराशि राज्य को नहीं मिल पा रही है। इससे राज्य के सामने वित्तीय संकट खड़ा हो गया है। लेकिन, इस सबके बावजूद यह भी सच्चाई है कि राज्य सरकार ने अपने राजस्व संसाधनों को बढ़ाने के लिए इच्छाशक्ति दिखाने से ही गुरेज किया। ग्राम पंचायत हों या स्थानीय निकाय, सरकार निकायों और पंचायतों को अपने पैरों पर खड़ा करने के प्रयास शुरू नहीं कर पाई। वहीं दायित्वधारियों के रूप में लंबी-चौड़ी फौज खड़ी कर सरकार ने सरकारी खजाने पर गैर जरूरी बोझ बढ़ाने का ही काम किया। हालांकि, मुख्यमंत्री की ओर से सरकारी स्तर पर फिजूलखर्ची रोकने पर जोर देते हुए नियत अवधि में इस पर अमल करने का भरोसा भी बंधाया, लेकिन इस भरोसे को सरकार खुद ही कायम नहीं रख पाई। ऐसे में गाज जनता पर ही गिरनी है।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]