केरल विधानसभा में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के साथ जैसा व्यवहार किया गया उसे संसदीय अभद्रता ही कहा जाएगा। पहले तो उन्हें वह अभिभाषण पढ़ने के लिए विवश किया गया जो संवैधानिक मर्यादा के अनुकूल नहीं था और फिर उनके खिलाफ विपक्षी सदस्यों की ओर से नारेबाजी भी कराई गई। सत्तापक्ष और विपक्ष के ऐसे दुराचरण के बाद भी राज्यपाल ने जिस तरह अभिभाषण का वह हिस्सा पढ़ा जिस पर उन्हें आपत्ति थी उससे उन्होंने अपने पद की गरिमा ही बढ़ाई। राज्य सरकार को इसका गुमान हो सकता है कि उसने राज्यपाल को नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए विरोधी अभिभाषण पढ़ने के लिए बाध्य किया, लेकिन वह उनकी असहमति की अनदेखी नहीं कर सकती जो उन्होंने सदन में ही दो टूक शब्दों में व्यक्त की। इसके पहले केरल विधानसभा सीएए के विरोध में एक प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है।

संवैधानिक तौर-तरीकों को धता बताकर पारित किए गए इस प्रस्ताव पर कांग्रेस ने सत्तारूढ़ वाम दलों के साथ खड़े होना पंसद किया था। ऐसा ही प्रस्ताव पश्चिम बंगाल विधानसभा ने भी पारित किया और उस दौरान कांग्रेस और वाम दलों ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का साथ दिया। इस पर हैरानी इसलिए नहीं, क्योंकि सीएए के विरोध में सबसे अधिक सक्रिय कांग्रेस, वाम दल और तृणमूल कांग्रेस ही है। यह महज दुर्योग नहीं कि इन्हीं दलों का जनाधार तेजी से खिसकता जा रहा है।

यह हास्यास्पद है कि विपक्षी दल एक ओर संविधान एवं लोकतंत्र की दुहाई देने में लगे हुए हैं और दूसरी ओर संवैधानिक मर्यादा को तार-तार भी कर रहे हैं। अब तो वे राज्यपाल सरीखे संवैधानिक पद का भी निरादर करने में जुट गए हैं। जहां केरल सरकार ने सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने के पहले राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को सूचित करना जरूरी नहीं समझा वहीं बंगाल सरकार राज्यपाल जगदीप धनखड़ को कदम-कदम पर अपमानित करने का अभियान छेड़े हुए है। विगत दिवस कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उनसे नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी को दिए जाने वाले सम्मान पत्र पर हस्ताक्षर कराने के बाद उन्हें मंच तक नहीं जाने दिया गया।

क्या यह राज्यपाल के साथ की जानी वाली खुली अभद्रता नहीं? आखिर ऐसी अभद्रता को बढ़ावा दे रहे दल किस मुंह से संविधान की बात कर रहे हैं? यदि विपक्षी दल और खासतौर पर कांग्रेस यह समझ रही है कि अराजकता का माहौल बनाकर वह अपने राजनीतिक हित साध सकती है तो यह उसकी भूल है। मुट्ठी भर लोगों के जरिये अराजकता फैला रहे राजनीतिक दलों को यह पता होना चाहिए कि देश उनकी इस अराजक राजनीति को अच्छी तरह देख रहा है और वह चुप नहीं बैठने वाला।