इटावा-लखनऊ हाईवे पर हुए एक भयावह हादसे में करीब 25 मजदूरों की मौत ने जैसे-तैसे घर लौट रहे कामगारों की दयनीय दशा की ओर फिर से देश का ध्यान केंद्रित किया है। यदि कामगारों की घर वापसी के लिए उचित प्रबंध किए गए होते तो शायद इस भीषण हादसे में उनकी जान जाने से बच सकती थी। कायदे से केंद्र और राज्य सरकारों को तभी चेत जाना चाहिए था जब महाराष्ट्र में ट्रेन पटरियों पर सो रहे कामगार मालगाड़ी से कट मरे थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कोरी संवेदना जताकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई। नतीजा यह हुआ कि कामगारों के पैदल या साइकिल से घर जाने का सिलसिला और तेज हो गया। यह सिलसिला इसलिए भी तेज हुआ, क्योंकि जो श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चल रही हैं वे पर्याप्त नहीं साबित हो रही हैं।

यह साफ है कि घर लौटना चाह रहे सभी कामगार इन ट्रेनों की सुविधा हासिल नहीं कर पा रहे हैं। यह विचित्र है कि न तो पैदल घर जाने को मजबूर मजदूरों को रोकने की कोशिश की गई और न ही उन्हेंं उचित तरीके से उनके घर भेजने की। इस घातक उदासीनता का परिचय यह जानते हुए भी दिया गया कि चंद दिनों बाद जब कारोबारी गतिविधियां शुरू होंगी तो मजदूरों की जरूरत पड़ेगी।

चूंकि घर लौट रहे मजदूरों के सड़क हादसों में हताहत होने के समाचार आए दिन आ रहे हैं इसलिए राज्य सरकारों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपनी सीमा में उन्हेंं पैदल गुजरने से रोकें। इसी के साथ उन्हेंं इसकी भी चिंता करनी होगी कि कहीं मजदूर माल ढुलाई में लगे ट्रकों में असुरक्षित तरीके से यात्रा करने के लिए विवश तो नहीं हैं? चूंकि इन दिनों खाली सड़क देखकर वाहनों को तेज गति से चलाया जा रहा है इसलिए इसके खिलाफ भी सख्ती बरतनी होगी। यह ठीक है कि केंद्र सरकार ने राज्यों को यह निर्देश दिया है कि वे मजदूरों को पैदल जाने से रोकें, लेकिन उचित यह होगा कि राज्य सरकारों से यह भी कहा जाए कि वे कुछ दिन श्रमिक स्पेशल बसें चलाएं।

समझना कठिन है कि राज्य सरकारें श्रमिक स्पेशल बसों का संचालन क्यों नहीं कर सकतीं? ये बसें इस तरह चलाई जानी चाहिए जिससे मजदूरों को राज्य विशेष की सीमा पार करने में आसानी हो। लॉकडाउन के चौथे चरण की रूपरेखा बनाने से पहले यह सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए कि हताश-निराश मजदूर सुरक्षित और सम्मानजनक तरीके से अपने घर लौटें। यह तभी संभव होगा जब राज्य सरकारें एक-दूसरे के साथ तालमेल करेंगी। सरकारों को इसका आभास होना चाहिए कि मजदूरों की उपेक्षा-अनदेखी राष्ट्रीय शर्म का विषय बन रहा है।