केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने यह बात तो पते की कही कि आरक्षण नौकरी की गारंटी नहीं है, लेकिन उनकी यह साफगोई मोदी सरकार के समक्ष मुसीबत खड़ी कर सकती है, क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि नौकरियां घटती जा रही हैं। उनकी ओर से यह साफ किया गया कि एक तो सूचना-तकनीक के कारण नौकरियां कम हो रही हैं और दूसरी ओर सरकारी भर्तियां बंद हैं। इसका तो यही मतलब हुआ कि सरकार अपनी जिम्मेदारियां कम करके निजीकरण की ओर बढ़ रही है।

नि:संदेह यह चलन नया नहीं। पूरी दुनिया में यही हो रहा है, क्योंकि निजी क्षेत्र के मुकाबले सरकारी क्षेत्र अकुशल साबित होने के साथ ही लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है। शायद इसी कारण केंद्र और राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों में लाखों पद रिक्त हैं, लेकिन आखिर इन लाखों रिक्त पदों के रहते यह दावा कैसे किया जा सकता है कि पर्याप्त संख्या में रोजगार उपलब्ध कराए जा रहे हैं।

यह समय की मांग और जरूरत है कि केंद्रीय सत्ता अपनी रोजगार नीति को लेकर कोई संशय न रखे और इसे बार-बार दोहराने में संकोच न करे कि आज के युग में कोई भी सरकार अपने बलबूते सबको नौकरियां नहीं उपलब्ध करा सकती। इससे सभी को अवगत भी होना चाहिए कि रोजगार का मतलब केवल नौकरियां और वह भी सरकारी नौकरियां नहीं होता और न हो सकता है। जब सरकारी नौकरियों में कमी एक सच्चाई है तब सरकार को यह देखना होगा कि निजी क्षेत्र रोजगार देने के मामले में समावेशी दृष्टि से लैस नजर आए।

यह भी आज का यथार्थ है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण आवश्यक होता जा रहा है। यह अच्छा है कि नितिन गडकरी आर्थिक आधार पर आरक्षण को वक्त की जरूरत बता रहे हैं, लेकिन आखिर कब तक केवल सुझाव और सलाह देने तक सीमित रहा जाएगा? आखिर इस दिशा में सरकार की ओर से कोई ठोस पहल क्यों नहीं होती? यह ठीक है कि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं, लेकिन क्या यह व्यवस्था पत्थर की लकीर है? क्या जातिगत के साथ आर्थिक आधार पर भी आरक्षण की गुंजाइश नहीं बनाई जा सकती? भाजपा समेत अन्य राजनीतिक दल नीर-क्षीर ढंग से विचार करें तो एक प्रभावी और कहीं अधिक सार्थक आरक्षण की व्यवस्था का निर्माण संभव है।

समस्या यह है कि राजनीतिक दलों ने आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति का औजार बना लिया है। वे न तो आरक्षण की समीक्षा कर यह देखने को तैयार हैं कि उससे अब तक क्या हासिल हुआ और न ही जमीनी हकीकत देखने के लिए। वे बिना किसी ठोस आधार गैर-बराबरी, गरीबी आदि का जिक्र इस तरह करते रहते हैं मानों सामाजिक विषमता और निर्धनता के मामले में देश वहीं खड़ा है जहां 1960-70 के दशक में था।

खराब बात यह है कि ऐसा भी माहौल बनाया जाता है कि आरक्षण सभी समस्यायों का समाधान है। दरअसल इसी कारण आरक्षण की अनुचित मांगें सामने आती हैं। आज जब आंकड़े यह बता रहे हैं कि असमानता और निर्धनता निवारण में उल्लेखनीय कामयाबी मिल रही है तब फिर रोजगार और आरक्षण नीति को प्राथमिकता के आधार पर दुरुस्त किया जाना चाहिए।