डॉक्टरों को उनके पेशे के जीवनदायी पक्ष की वजह से ‘धरती का भगवान’ मानकर सम्मान दिया जाता है, पर बिहार के मेडिकल कॉलेजों और सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर इस पुरातन धारणा को अपने आचरण की बदौलत तेजी से बदल रहे हैं। सरकारी अस्पतालों का हाल देखकर नहीं लगता कि डॉक्टरों के मन में कोई नैतिक बोध, दायित्व बोध, लोक लाज या शासन-प्रशासन का भय बचा है। चाहे पीएमसीएच और आइजीआइएमएस जैसे बड़े अस्पताल हों या फिर अन्य मेडिकल कॉलेज और राजकीय चिकित्सा संस्थान, इनकी बदहाली की वजह से सिर्फ वही मरीज यहां आते हैं जिनके पास साधनहीनता के चलते कोई अन्य विकल्प नहीं रहता। हालात के मारे मरीज सुबह से इन अस्पतालों में लाइन लगाते हैं, पर डॉक्टरों का अता-पता नहीं रहता। अपवादों को छोड़कर कोई सरकारी डॉक्टर तय समय पर आउटडोर में नहीं मिलता। मरीज घंटों इंतजार करते हैं। आउटडोर के बाहर मरीजों और उनके तीमारदारों के बैठने और अन्य सुविधाओं की भी व्यवस्था नहीं रहती। जिन मरीजों की हालत गंभीर होती है, उनके लिए यह इंतजार बेहद यातनादायी होता है, पर ‘धरती के भगवानों’ को बीमार बंदों पर रहम नहीं आता।

दरअसल, इन डॉक्टरों की प्राथमिकता वे मरीज होते हैं जो निजी क्लीनिकों में उनकी सेवा प्राप्त करना चाहते हैं। सरकारी अस्पताल के आउटडोर की चिंता छोड़कर डॉक्टर पहले निजी क्लीनिकों में मरीज देखते हैं। वहां से फुर्सत मिलने पर वे सरकारी अस्पताल आते हैं। दुर्भाग्य है कि निजी प्रैक्टिस की यह ‘बीमारी’ छोटे-बड़े सभी सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों को लग गई है। ज्यादातर डॉक्टर 11-12 बजे आउटडोर में आते हैं और कुछ मरीज निपटाकर निकल जाते हैं। डॉक्टरों की लॉबी इतनी सशक्त है कि अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर सरकार और शासन के प्रतिनिधि भी मौन साधे रहते हैं। सरकारी अस्पतालों में अधिकतर चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हैं, पर डॉक्टरों की बेपरवाही के चलते मरीजों को इनका लाभ नहीं मिलता। राज्य सरकार को इस दिशा में गंभीरता से विचार करना चाहिए। यदि समस्या की जड़ डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस है तो इस पर प्रतिबंध लगाने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए।

[ मुख्य संपादकीय: बिहार ]