बैंकों की पुनर्पूंजीकरण योजना के तहत उन्हें 20 हजार करोड़ रुपये और देने की तैयारी यही याद दिलाती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गलतियों की सजा सरकारी कोष यानी आम आदमी को भुगतनी पड़ रही है। इस गलती में रिजर्व बैंक के साथ पिछली संप्रग सरकार भी शामिल है। हालांकि मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही घाटे में डूबते बैंकों की सुध ली, लेकिन तब तक शायद देर हो चुकी थी और इसीलिए पिछले वर्ष उसे यह घोषणा करनी पड़ी कि दो लाख 11 हजार करोड़ रुपये की सहायता से बैंकों की हालत सुधारी जाएगी। फिलहाल कहना कठिन है कि बैंकों को सरकारी सहायता की जरूरत कब तक पड़ती रहेगी, क्योंकि बैंकों की पुनर्पूंजीकरण योजना के तहत उन्हें कुल दो लाख 11 हजार करोड़ रुपये दिए जाने हैं और उनमें डूबी रकम आठ लाख करोड़ रुपये से भी अधिक है।

इसमें संदेह है कि अब बैंकों ने अपनी कार्यप्रणाली ऐसी कर ली है कि भविष्य में वे वैसी स्थितियों से दो-चार नहीं होंगे जैसी स्थितियों से हुए और जिसके चलते वे एक तरह से बर्बाद होने के कगार पर पहुंच गए। फिलहाल यह कहना भी कठिन है कि रिजर्व बैंक ने निगरानी और नियमन संबंधी अपनी खामियों से सबक लेकर ऐसी व्यवस्था कर ली है जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक सतर्क हो गए हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि अभी भी रह-रहकर ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जो यह बताते हैं कि बैंक घाटे में डूबी अपनी रकम अथवा फंसे हुए कर्जो के बारे में रिजर्व बैंक को समय पर सूचना देने से बच रहे हैं। यही कारण है कि अनुचित तरीके से कर्ज लेकर उसे लौटाने में आनाकानी करने वालों के नाम सामने आने का सिलसिला कायम है।

वैसे तो यह सरकार को सुनिश्चित करना है कि सरकारी बैंक सही तरह चलें और उनके फंसे कर्ज एक सीमा से अधिक न होने पाएं, लेकिन बैंकों की नियामक संस्था होने के नाते रिजर्व बैंक की भी जिम्मेदारी बनती है। अगर उसने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह सही तरह किया होता तो आज जो दिन देखने पड़ रहे हैं उनसे बचा जा सकता था। ये जो लाखों करोड़ों रुपये एनपीए में तब्दील हो गए हैं उसके लिए रिजर्व बैंक अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकता। यह एक विडंबना ही है कि जब सरकार ने इस जवाबदेही को रेखांकित किया तो रिजर्व बैंक की ओर से अधिकारों में कमी का रोना रोया गया।

आखिर यह बात पहले क्यों नहीं सामने लाई गई कि रिजर्व बैंक के पास वैसे अधिकार नहीं हैं जैसे होने चाहिए। कम से कम अब तो यह सुनने को नहीं ही मिलना चाहिए कि रिजर्व बैंक पर्याप्त अधिकारों से लैस न होने के कारण बैंकों की सही तरह निगरानी नहीं कर पा रहा है। यह भी समय की मांग है कि जिन 11 बैंकों को दुरुस्त करने के लिए एक विशेष ढांचे में रखा गया है, उनकी कार्यप्रणाली को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक के मतभेद यथाशीघ्र दूर हों। यह ठीक नहीं कि जब रिजर्व बैंक और सरकार को आपस में मिलकर काम करना चाहिए, तब उनमें तनातनी की खबरें आ रही हैं।