नीतीश कुमार के राजग में लौटने के बाद करीब सात महीने बेचैनी एवं दुविधा में काटकर पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी अंतत: लालू प्रसाद के साथ चले गए। वह लंबे समय से इसके संकेत दे रहे थे। राजग भी यह मान चुका था कि वह पाला बदलेंगे। इसीलिए उनकी किसी बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जा रही थी। यहां तक कि उनके एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद जहानाबाद उपचुनाव की सीट उन्हें नहीं दी गई। इससे मांझी भी समझ गए कि राजग में अब उनकी दाल नहीं गलने वाली, लिहाजा वह दूसरे पाले में चले गए।

खास बात यह है कि मांझी ने इसके लिए उपचुनाव से ठीक पहले का वक्त चुना ताकि राजग उम्मीदवारों को अधिकतम संभव नुकसान हो। राजग को कितना नुकसान होता है और राजद को कितना फायदा, यह तो भविष्य में पता चलेगा, लेकिन छोटे दलों के इस चरित्र पर राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में बहस जरूर होनी चाहिए। अपने परिवार और जाति के नाते-रिश्तेदारों के लिए सौदेबाजी करना छोटे दलों की राजनीतिक शैली है। इन दलों की राष्ट्रीय या प्रांतीय संदर्भो में कोई सार्थक भूमिका नहीं दिखती। यह खतरनाक स्थिति है। ये दल मुख्य रूप से अपनी जाति की भावनाएं भड़काकर वोटबैंक तैयार करते हैं और फिर उसके आधार पर बड़े दलों के साथ सौदेबाजी करते हैं।

जीतन राम मांझी का उदाहरण देखें तो किसी वक्त नीतीश कुमार ने उन पर सर्वाधिक भरोसा जताकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया था, पर बाद में जब बदली परिस्थितियों में नीतीश ने उनसे मुख्यमंत्री पद छोड़ने की अपेक्षा की तो वह खफा हो गए। उन्होंने मुख्यमंत्री पद के साथ नीतीश का साथ भी छोड़ दिया। राजग ने उन्हें बड़ा नेता मानकर हाथों-हाथ लिया। विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को काफी संख्या में सीटें दीं। उन्हें हेलिकॉप्टर देकर चुनाव प्रचार करवाया, पर नतीजे आने पर स्पष्ट हुआ कि राजग का आकलन सही नहीं था। मांझी खुद एक विधानसभा सीट पर चुनाव हार गए। इसके बावजूद राजग मांझी को यथासंभव सम्मान देता रहा, पर नीतीश कुमार के वापस आने के बाद राजग में मांझी का काउंट डाउन शुरू हो गया। भाजपा नेतृत्व यह मानक चल रहा है कि निकट भविष्य में बिहार की एक और पार्टी राजग से निकलकर लालू प्रसाद के साथ जाएगी।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]