राजस्थान में एक सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने यह सही कहा कि हमारी लड़ाई कश्मीर के लिए है, कश्मीर के खिलाफ नहीं। उन्होंने न केवल यह साफ किया कि लड़ाई कश्मीरियों के खिलाफ नहीं, बल्कि यह भी कहा कि देश के कुछ हिस्सों में कश्मीरी छात्रों के खिलाफ जो घटनाएं हुई हैैं वे नहीं होनी चाहिए थीं। वास्तव में कश्मीर की लड़ाई अमन पसंद और भारत समर्थक कश्मीरियों को साथ लेकर ही लड़ी जा सकती है। आज जितनी जरूरत इस बात को सही तरह से समझने की है उतनी ही इसकी भी कि कश्मीर के लिए लड़ाई लड़ते समय उन तत्वों का प्रतिकार भी करना होगा जो कश्मीरियत की बात करते-करते अलगाव और आतंक की राह पर चल निकले हैैं और घाटी के माहौल को विषाक्त करने में लगे हुए हैैं। इसी विषाक्त माहौल के चलते एक समय जो कश्मीरियत सूफी परंपरा से पगी और भारतीयता के रंग में रंगी थी वह आज मजहबी कट्टरता में तब्दील हो गई है।

कश्मीरियत के दूषित हो जाने के कारण ही वहां सुरक्षा बलों और सेना के खिलाफ पत्थरबाजी होती है और भारतीय हितों को चोट पहुंचाने वाली हरकतें होती हैं। आज अगर कश्मीर में अलगाववाद एक धंधा बन गया है तो यह हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे पाकिस्तान परस्त संगठनों के कारण। आखिर पाकिस्तान के इशारे पर काम करने और उसकी ही भाषा बोलने वाले इस तरह के संगठनों से यह उम्मीद की ही क्यों गई कि वे समस्या समाधान में सहायक बन सकते हैैं? यह अच्छा नहीं हुआ कि कश्मीरियत को नष्ट-भ्रष्ट करने वाले इन तत्वों को अनावश्यक अहमियत दी गई। इस गलत नीति का नतीजा यह हुआ कि ऐसे तत्व आतंकवाद के खुले समर्थक में तब्दील हो गए।

ऐसा लगता है कि हमारे नीति-नियंताओं ने यह ध्यान ही नहीं रखा कि कश्मीर में किन्हें साथ लेने की जरूरत है और किन्हें खारिज करने एवं हाशिये पर ले जाकर अप्रासंगिक करने की। कम से कम अब तो ऐसी गलतियों से बचा जाना चाहिए। इसी के साथ कश्मीर में असर रखने वाले उन राजनीतिक दलों से भी सावधान रहना चाहिए जो सत्ता में रहते समय अलग सुर में बात करते हैैं और विपक्ष में रहते समय अलग सुर में। इस मामले में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी सरीखे दलों का रुख-रवैया भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा। वे कभी हुर्रियत सरीखे संगठनों को साथ लेने की रट लगाते हैैं और कभी इस पर जोर देते हैैं कि पाकिस्तान से बात तो की ही जानी चाहिए।

आखिर जिस देश ने जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर को आतंक की आग में झोंक दिया उससे बात करके क्या हासिल किया जा सकता है? ये राजनीतिक दल और अधिकारों की तो पैरवी करते हैैं, लेकिन कश्मीर और शेष भारत के बीच की दूरी घटाने वाली कोई पहल नहीं करते। उलटे ऐसी पहल में बाधक बनते हैं। आज कश्मीर में एक नई शुरुआत करने की जरूरत है ताकि एक ओर जहां अलगाव और आतंक के खुले-छिपे समर्थकों को हतोत्साहित किया जा सके वहीं शांति के समर्थकों को प्रोत्साहित किया जा सके। यह शुरुआत सही सोच वाले कश्मीरियों को भरोसे में लेकर ही हो सकती है।