हिमाचल की आबादी का बड़ा हिस्सा खेती-बागवानी पर निर्भर है। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रदेश में भी किसान रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बड़ी मात्र में प्रयोग हो रहा है। यह देखने की सुध किसी को नहीं कि क्या जमीन को खादों या कीटनाशकों की जरूरत है भी या नहीं। इनके अंधाधुंध प्रयोग से जल, जंगल और जमीन को काफी नुकसान पहुंचा है, जिसकी भरपाई करने में लंबा समय लगेगा। लोगों को कई बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। कई जानलेवा बीमारियां जैसे हार्ट अटैक, कैंसर, दस्त, उल्टियां, अपच इनके प्रयोग का ही नतीजा है। हरित क्रांति के लिए रासायनिक खादों को बढ़ावा दिया गया था, जिसके शुरुआत में अच्छे परिणाम सामने आए और उत्पादन में वृद्धि दर्ज की गई। लेकिन धीरे-धीरे बिना सोचे-समङो इनका प्रयोग बढ़ता गया व खेती व पर्यावरण को नुकसान पहुंचा। खादों के असंतुलित इस्तेमाल से मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक तत्व खत्म होने से उत्पादन कम होने लगा है, जिससे किसानों की लागत बढ़ी है और मुनाफा कम होने लगा है। इसलिए खेती अब घाटे का सौदा साबित होने लगी है।

वैज्ञानिक बार-बार चेता रहे हैं कि अगर रासायनिक खादों का इस्तेमाल इसी तरह होता रहा तो आने वाले समय में देश की उपजाऊ जमीन का बड़ा हिस्सा बंजर भूमि में बदल जाएगा। किसानों से जुड़े इस अहम मुद्दे पर हिमाचल सरकार की चिंता झलकती है, जो शून्य लागत प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन देने में जुटे हैं। सरकार का इरादा स्पष्ट है कि खेती व किसानों को बचाने के लिए आगामी पांच साल में राज्य में पूरी तरह शून्य लागत खेती का लक्ष्य पूरा कर लिया जाएगा। इसके लिए प्रदेश सरकार ने 25 करोड़ रुपये की शून्य लागत प्राकृतिक खेती योजना की शुरुआत की है, जो किसानों को बीमारी देने वाला नहीं बल्कि अन्न देने वाला बनाएगी। इसके लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। इस विधि से खेती करने का लाभ यह होगा कि किसान रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर होने वाले भारी-भरकम खर्च की बचत कर सकेंगे। साथ ही इससे पैदा होने वाला अनाज व अन्य उत्पाद सेहत के लिए खतरा साबित नहीं होंगे। इनसे उत्पादित वस्तुओं में गुणवत्ता व पौष्टिकता ज्यादा होती है जबकि रासायनिक खादों से उत्पादित वस्तुओं के कई नुकसान ङोलने पड़ते हैं। स्वस्थ भारत के निर्माण के लिए किसानों को इस सार्थक पहल में भागीदार बनना चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश ]