दिल्ली और उसके आसपास वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच जाने के बाद उस पर लगाम लगाने के लिए नए सिरे से सक्रियता भले दिखाई जा रही हो, लेकिन उससे स्थिति संभलने के लिए आसार कम ही हैं। इसका एक कारण तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे को दोष देने तक ही अधिक सीमित हैं और दूसरा यह कि वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए आधे-अधूरे उपाय ही किए जा रहे हैं। यदि यह समझा जा रहा है कि वायु प्रदूषण को सेहत के लिए आपातकाल के तौर पर रेखांकित करने से कुछ हासिल हो सकता है तो यह सही नहीं। आखिर आपातस्थिति की घोषणा वायु प्रदूषण को कम करने में सहायक कैसे हो सकती है?

जब यह स्पष्ट है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्य वायु प्रदूषण से मिलकर नहीं निपट रहे हैं तब फिर यह आवश्यक था कि केंद्र सरकार आगे आकर कोई पहल करती। समझना कठिन है कि वह ऐसा करने में क्यों नाकाम है? सवाल यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय हरित अधिकरण भी प्रदूषण की प्रभावी रोकथाम क्यों नहीं करा सके? वायु प्रदूषण का खतरनाक स्तर व्यवस्था की सामूहिक विफलता का शर्मनाक उदाहरण ही है। यह विफलता आम जनता की सेहत से खिलवाड़ करने वाली ही नहीं, देश की बदनामी कराने वाली भी है। शायद किसी को इसकी परवाह नहीं कि दुनिया में भारत की कैसी छवि बन रही होगी?

आखिर यह कैसे नए भारत का निर्माण हो रहा है कि लोगों की जान पर बन आ रही है? इन दिनों उत्तर भारत जैसे भीषण वायु प्रदूषण से जूझ रहा है उससे यही पता चल रहा है कि देश के शहरों को दुनिया के साफ-स्वच्छ शहरों जैसा बनाने के वादे करने वाले हमारे नीति-नियंता किस तरह खोखले दावे करने में माहिर हो गए हैं। हर कोई इससे परिचित है कि पंजाब और हरियाणा में फसलों के अवशेष जलाए जाने से जब उनका धुआं धूल और वाहनों के उत्सर्जन से मिलता है तब वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंचता है, लेकिन इन सभी कारणों का निवारण करने की कोई स्पष्ट नीति कहीं नजर नहीं आती।

इसी कारण बीते लगभग एक दशक से सर्दियों में उत्तर भारत का वायुमंडल सेहत के लिए संकट खड़ा कर देता है। यह संकट वर्ष दर वर्ष जिस तरह गंभीर रूप लेता जा रहा है उससे यही पता चलता है कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए काम कम और बातें अधिक की जा रही हैं। इसका एक प्रमाण यह है कि इस बार पंजाब में फसलों के अवशेष कहीं अधिक जले। यह नाकारापन की मिसाल नहीं तो और क्या है?