धान का सीजन शुरू होते ही पर्यावरण की चिंता के स्वर फिर से सुनाई पड़ने लगे हैं। पराली जलाने के संकट से निपटने के लिए प्रदेश सरकार ने पिछले वर्ष ही कई योजनाएं शुरू करने का दावा किया था। कई गांवों को रोल मॉडल के तौर पर विकसित कर वहां पराली की खरीद के लिए डिपो बनाए जाने थे, लेकिन हकीकत में न डिपो बने और न ही खरीद की कोई तैयारी शुरू हो पाई। इस बार भी दीपावली के आसपास हवा हमारा दम घोंटेगी और हमारे पास कोई विकल्प नहीं हो पाएगा। निश्चित है पंचायतों को भी जागरूकता की मुहिम में शामिल किया जाना चाहिए लेकिन अनावश्यक डंडा चलाने से स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा, ग्रामीण स्तर पर सामाजिक विद्वेष बढ़ेगा।
इन सबके बीच हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ठोस नीति लेकर सामने आया है। विश्वविद्यालय 85 गांवों को पराली मुक्त बनाने का प्रयास करेगा। यह वे गांव हैं जो पराली जलाने के लिए बदनाम रहे हैं। 21 जिलों में यह अभियान चलाया जा रहा है। विश्वविद्यालय के पास सीमित संसाधन हैं। कुछ जगह पर किसानों पर कार्रवाई कर अधिकारी अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं जबकि अपेक्षा एक बड़ी जागरूकता मुहिम छेड़ने की है। चूंकि समय कम है ऐसे में सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ स्वयंसेवी संगठनों से भी इसमें सहयोग लिया जाना चाहिए। इसके अलावा पराली बनाने वाले कृषि यंत्रों पर सरकार सब्सिडी अलग से दे। इस समय दिल्ली में फीफा विश्वकप चल रहा है। ऐसे में आसमान पर धुएं के बादल हमारी अंतरराष्ट्रीय छवि को भी दागदार कर सकते हैं। इसलिए किसानों को सचेत किया जाना चाहिए। कचरा निस्तारण प्लांट अगर चालू हो जाते तो पराली का उपयोग बिजली व खाद बनाने में किया जा सकता था।

[ स्थानीय संपादकीय: हरियाणा ]