देश में हाथियों के लिए उत्तर पश्चिमी सीमा के अंतिम पड़ाव उत्तराखंड में इन दिनों गजराज का उत्पात सुर्खियों में है। फिर चाहे वह देहरादून हो हरिद्वार अथवा कोटद्वार क्षेत्र, हाथियों ने लोगों की नाक में दम किया हुआ है। हाथियों के झुंड खेतों में घुसकर फसलों को तबाह कर ही रहे, लोगों की जान भी सांसत में है। गजराज के उत्पात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले देहरादून वन प्रभाग में ही चार माह के भीतर हाथियों ने पांच लाख रुपये से अधिक की फसलें बरबाद कर डालीं। यह तो वन विभाग ने उन घटनाओं की क्षति का आकलन किया है, जो उस तक पहुंची। फसल क्षति के ऐसे मामलों की संख्या भी कम नहीं, जो विभाग की देहरी तक पहुंचे ही नहीं। ऐसा ही सूरतेहाल हरिद्वार और कोटद्वार क्षेत्र का भी है। हाथियों के इस उत्पात ने विभाग की पेशानी में भी बल डाले हुए हैं, लेकिन कारणों की पड़ताल करें तो इसके लिए जिम्मेदार हम स्वयं हैं। जंगलों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के साथ ही विकास की अंधी दौड़ हाथियों को आबादी की ओर धकेल रही है। असल में हाथियों को जीवनयापन के लिए बड़े बड़े भूखंडों की जरूरत होती है और वनों के सिकुडऩे और जैवविविधता के ह्रास के चलते हाथी रिहायशी इलाकों में निकलने लगे हैं। ऐसे में हाथी और मानव के बीच संघर्ष तेजी से बढ़ा है। इस जंग के लिहाज से लैंसडौन, हरिद्वार और देहरादून वन प्रभाग सूबे में सर्वाधिक संवेदनशील हैं। जाहिर है, इस समस्या के समाधान के लिए हाथियों को आवाजाही के रास्ते सुलभ कराने के दृष्टिकोण से कॉरीडोर (एक जंगल से दूसरे जंगल में जाने को गलियारे) सुरक्षित करना नितांत आवश्यक है। समूची तस्वीर पर नजर दौड़ाएं तो राज्य के वन बाहुल्य क्षेत्रों में विकास की तीव्र गति के फलस्वरूप वन क्षेत्रों पर जैविक और विकासात्मक दबाव खासा बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप वन भूमि का स्थान-स्थान पर विखंडन हुआ है। इससे वन्यजीवों की स्वतंत्र एवं निर्विघ्न आवाजाही पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। प्रदेश में बढ़ते मानव वन्यजीव संघर्ष के लिए यह स्थिति भी बड़ी जिम्मेदार है। चूंकि प्राकृतिक वासस्थलों के हा्रस से वन्य जीवों के व्यवहार में भी परिवर्तन देखने में आया है। हाथियों के मामले में भी स्थिति जुदा नहीं है और पूर्व में हुए अध्ययनों में यह बात सामने भी आ चुकी है। इस सबको देखते हुए जंगल और विकास के साथ सामंजस्य बैठाते हुए ऐसे कदम उठाए जाने चाहिएं, जिससे हाथी समेत दूसरे वन्यजीव भी सुरक्षित रहें और मनुष्य भी। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मसले पर अब तक होती आ रही कोरी बयानबाजी से ऊपर उठकर सरकार ठोस कार्ययोजना तैयार कर धरातल पर उतारेगी।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]