रेवड़ी संस्कृति (Revdi Culture) को लेकर चर्चा के बीच चुनाव आयोग (Election Commission of India) की ओर से राजनीतिक दलों को लिखी गई यह चिट्ठी महत्वपूर्ण है कि वे अपने चुनावी वादों की वित्तीय व्यावहारिकता की जानकारी मतदाताओं को दें। इस चिट्ठी में उसने दलों से इस बारे में राय मांगी है कि क्यों न चुनावी वादों को लेकर एक प्रारूप बना दिया जाए? इसमें संदेह है कि राजनीतिक दल इस पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया देंगे, क्योंकि वे चुनावों के समय लोकलुभावन घोषणाएं कर लोगों को लुभाने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहते।

इस क्रम में कई बार हवा-हवाई और ऐसी घोषणाएं कर दी जातीं है, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं होता या जो सरकारों के लिए आर्थिक रूप से एक बोझ बन जाती हैं। इसके दुष्परिणाम अंततः जनता ही भुगतती है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि जब कभी लोकलुभावन वादों को पूरा करने के उपायों को लेकर सवाल उठते हैं तो ऐसे तर्क दिए जाने लगते हैं कि हम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाकर संबंधित योजना के लिए राशि जुटाएंगे।

कभी-कभी तो इस बारे में कुछ कहने-बताने की जरूरत ही नहीं समझी जाती और फिर सत्ता में आने पर अपने वादों को आधे-अधूरे ढंग से पूरा करने की कोशिश में आर्थिक नियमों की अनदेखी की जाती है या फिर कर्ज लेकर जैसे-तैसे काम चलाया जाता है। इससे होता यह है कि राज्यों की वित्तीय स्थिति और खस्ताहाल हो जाती है। इसका उल्लेख हाल में भारतीय स्टेट बैंक के अर्थशास्त्रियों की ओर से जारी रपट में भी किया गया है। इस रपट के अनुसार रेवड़ी संस्कृति का चलन आने वाले समय में अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। उक्त रपट यह भी कहती है कि राज्यों के बजट में कर्ज का हिस्सा करीब 4.5 प्रतिशत तक पहुंच गया है।

विडंबना यह है कि चुनाव वाले राज्यों में राजनीतिक दलों की ओर से लोकलुभावन घोषणाएं करने का सिलसिला कायम है। जब कोई एक दल चुनावी लाभ के लिए रेवड़ी बांटने की घोषणा करता है, तब अन्य दल भी ऐसा ही कुछ वादा करने के लिए विवश हो जाते हैं। चुनाव आते-आते यह एक होड़ में बदल जाता है। रेवड़ी संस्कृति का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी है, लेकिन राजनीतिक दल उसके इस प्रस्ताव से सहमत नहीं कि इस संदर्भ में कोई विशेषज्ञ पैनल गठित कर दिया जाए।

स्पष्ट है कि वे यह बताने को तैयार नहीं कि उनके द्वारा किए जाने वाले वादे राज्य या केंद्र सरकार के वित्तीय ढांचे के अंदर टिकाऊ साबित होंगे। इन स्थितियों में यही उचित है कि लुभावने वादों के संदर्भ में कोई ऐसी नीति बने, जिससे राजनीतिक दल चुनावी लाभ के लिए मनमानी घोषणाएं करने से बाज आएं। राजनीतिक दलों को इसके लिए जवाबदेह बनाया ही जाना चाहिए कि वे जिन योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं, उनके लिए राजस्व कहां से जुटाएंगे? यह तब संभव होगा, जब चुनाव आयोग (EC) को पर्याप्त अधिकार दिए जाएंगे।