रुपये में और गिरावट के साथ ही यह पूरी तौर पर स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है। इससे भी गंभीर बात यह है कि रुपये में गिरावट का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है। अब तो यह भी स्पष्ट है कि केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को यह सूझ नहीं रहा कि वे अर्थव्यवस्था के इस संकट को दूर करने का काम कैसे करें? सबसे खराब बात यह है कि उन कारणों को स्पष्ट करने से भी बचा जा रहा है जिनके चलते आर्थिक संकट गंभीर रूप ले चुका है। इन स्थितियों में यह जरूरी हो जाता है कि आर्थिक संकट किन कारणों से गहराया, इस पर कोई श्वेत पत्र लाया जाए। श्वेत पत्र ही यह स्पष्ट कर सकता है कि देश को संकट के मुहाने पर ले जाने के लिए कौन जिम्मेदार है? श्वेत पत्र की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि अभी तक यह तर्क दिया जा रहा था कि वैश्विक कारणों से भारतीय अर्थव्यवस्था दबाव में है। जब यह तर्क देने की गुंजाइश खत्म हो गई तब जाकर यह कहने का साहस दिखाया गया कि घरेलू कारणों से भी अर्थव्यवस्था के संकट बढ़े हैं। नि:संदेह अभी भी सच को छिपाया जा रहा है, क्योंकि नीतिगत पंगुता का दोष अन्य के सिर मढ़ने की कोशिश हो रही है। भले ही वित्ता मंत्री और प्रधानमंत्री की ओर से यह भरोसा दिलाया जा रहा हो कि घबराने की जरूरत नहीं और बिगड़ी हुई स्थितियों को संभाल लिया जाएगा, लेकिन सच्चाई यही है कि घबराहट पैदा करने वाले हालात उभर आए हैं और उनकी अनदेखी करना मुसीबत को बढ़ाना ही है।

पिछले कुछ समय में वित्ता मंत्री और प्रधानमंत्री की ओर से अर्थव्यवस्था की गिरती सेहत को संभालने के आश्वासन जिस तरह खोखले साबित हुए उससे अब उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। भरोसा न करने का एक बड़ा कारण यह भी है कि जब राजकोषीय घाटे के साथ चालू खाते का घाटा बेकाबू होता दिख रहा था तब सवा लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी वाले खाद्य सुरक्षा कानून को ले आया गया। यह कानून एक तरह के आत्मघात के अलावा और कुछ नहीं। इस आत्मघात के लिए केंद्रीय शासन के नीति-नियंताओं के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी बराबर की जिम्मेदार हैं। अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित होने वाला यह कानून सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों की जिद का परिणाम है। यह कानून सिर्फ और सिर्फ इसलिए लाया जा रहा है ताकि कांग्रेस उसके जरिये फिर से सत्ता में आ सके। वोट बैंक की राजनीति के लिए अर्थव्यवस्था को खतरे में डालने के इस काम के अलावा जिस तरह जरूरी आर्थिक फैसलों से जानबूझकर बचा गया उसके लिए भी कांग्रेस नेतृत्व जवाबदेह है, क्योंकि यह नहीं माना जा सकता कि वित्ता मंत्री और प्रधानमंत्री ने जानबूझकर उन फैसलों से मुंह मोड़े रखा जो आवश्यक हो गए थे। राजनीति के फेर में अर्थनीति को जिस तरह ताख पर रखा गया उसके दुष्परिणाम स्वरूप ही आर्थिक आपातकाल जैसे हालात पैदा हो गए हैं। मुश्किल यह है कि केंद्र सरकार के वश में ज्यादा कुछ नहीं रह गया है। अब तो यही गनीमत होगी कि वह अर्थव्यवस्था को बचाने का काम ईमानदारी से करे। यह काम तभी हो पाएगा जब वोट बटोरने की राजनीति से बचा जाएगा।

[मुख्य संपादकीय]

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