राज्य के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर बारहवीं कक्षा तक ट्यूशन पढ़ाने वाले निजी सेंटरों को 90 दिनों तक बंद करना छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ जैसा है। शिक्षा का स्तर ट्यूशन सेंटरों को बंद करने से नहीं सुधरेगा। सरकारी स्कूलों में जब तक संस्थागत ढांचा नहीं होगा तब तक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं हो सकता। अधिकतर अभिभावकों का सरकारी स्कूलों से विश्वास उठ चुका है। आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने को मजबूर हैं। ऐसा नहीं कि सभी सरकारी स्कूलों की हालत एक समान है। शहरों और कस्बों के स्कूलों को छोड़ दे तो राज्य के दूरदराज इलाकों में शिक्षा का स्तर साल दर साल गिरता जा रहा है। अधिकतर स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। यहां तक कि स्कूलों में छात्रों को मनपंसद विषय पढ़ाने वाले शिक्षक तक नहीं हैं।

विडंबना यह है कि उच्च शिक्षा के नाम पर राज्य में 104 डिग्री कॉलेज हैं। शहरों के कॉलेजों को छोड़ दें तो कुछ कॉलेजों में साइंस विषय के शिक्षक तक नहीं हैं। छात्र मजबूरन और विषय पढ़ने को मजबूर हैं। कुछ कॉलेज तो हायर सेकेंडरी स्कूलों में चल रहे हैं। बेशक सरकार का कहना है कि शिक्षा और अकादमिक गतिविधियों को बेहतर बनाने के लिए राज्य में ट्यूशन सेंटरों को बंद किया गया है, लेकिन इसके पीछे सरकार की मंशा कुछ और ही है। घाटी में इन दिनों छात्र कई दिनों से प्रदर्शन और पथराव की घटनाओं को अंजाम देने में लगे हुए हैं। सरकार की कोशिश है कि किसी तरह छात्रों को एक जगह एकत्रित न होने दिया जाए, जिससे कि उन्हें पथराव का मौका मिले। अगर सरकार वाकई शिक्षा के मूलभूत ढांचे को सुधारना चाहती है तो ट्यूशन सेंटरों को बंद नहीं करती। उन सभी पहलुओं का आंकलन कर कमजोरियों को दूर करने की कोशिश करती। ट्यूशन केंद्रों को मात्र 90 दिनों तक बंद करने से शिक्षा के ढांचे में सुधार नहीं लाया जा सकता। अगर सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के स्तर को बढ़ा दिया जाए तो छात्रों को ट्यूशन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

[ स्थानीय संपादकीय: जम्मू-कश्मीर ]