कभी-कभी बिहार को लेकर ऐसे बयान आ जाते हैं, जो यहां की आम अवाम को भी दुखी कर देते हैं। हालिया बयान नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक अधिकारी का है, जिसमें देश के पिछड़ेपन के लिए बिहार को भी जिम्मेदार ठहराया गया है। यह बयान उस राज्य के लिए है जो आजादी के पहले और उसके बाद देश के निर्माण में अग्रणी रहा है। यहां की ऐतिहासिकता को किनारे कर दिया जाए तो भारत का स्वर्णिम इतिहास बन ही नहीं सकता। विकास के लिए लोहा, कोयला या अन्य अयस्क के लिए कुछ दशक पूर्व तक विख्यात रहे बिहार को पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहरा देना, विचार शून्यता को दर्शाता है। बिहार के लिए ऐसा कहना कोई नई बात नहीं। पहले भी ऐसे बयान आते रहे हैं। गौरतलब यह कि ऐसे बयानबाजों ने कोई रास्ता नहीं सुझाया। कोई प्लान नहीं दिया। यदि नीति आयोग का बयान बिहार के विकास का मॉडल सामने रखते हुए आता तो उतनी पीड़ा नहीं होती। बयान से आहत राज्य की जनता भी समझ पाती कि खामियां हमारे द्वारा चुनी गई सरकारों में रही हैं, लेकिन यह बयान तो सिर्फ चोट करता है। नीति आयोग को चाहिए कि बिहार के विकास के लिए नीति बनाकर सार्वजनिक करे और यह साबित करे कि उसका बयान गैरवाजिब नहीं। फिलहाल चोट नहीं मरहम की दरकार है।

बिहार की यह खासियत रही है कि चाहे जो भी संसाधन रहे हों हमेशा अपने बूते खड़ा रहा है। यहां के विकास का मायने सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान भी है। कुछ उदाहरण तो ऐसे हैं जो देश के लिए नजीर बन गए हैं। आर्थिक चश्मे से बिहार को देखने वालों को पूर्ण शराबबंदी का मायने समझना होगा। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए पचास फीसद आरक्षण के अर्थशास्त्र का अध्ययन करना होगा। दहेज और बाल विवाह के उन्मूलन की जद्दोजहद का सामाजार्थिक पहलू जानना होगा। ये चंद उदाहरण हैं, जो फिलहाल देश-दुनिया की आंखों के सामने हैं। यह भी अस्वीकार्य नहीं कि कुछ काल खंड के लिए बिहार का शासन विकास के सापेक्ष नहीं था, लेकिन वर्तमान को देखकर बयान नहीं बल्कि प्लान करने की जरूरत है। कृषि प्रधान इस राज्य का भविष्य कृषि उत्पाद प्रसंस्करण और उसके निर्यात से भी संवारा जा सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]