कांग्रेस के साथ दूरियां बनाकर चलना माकपा की सैद्धांतिक नीति रही है। लेकिन बदलते राजनीतिक घटनाक्रम में अतीत में माकपा ने कांग्रेस का समर्थन और सहयोग किया। पश्चिम बंगाल में सत्ता से बेदखल होने के बाद माकपा में एक बार फिर कांग्रेस के साथ राजनीतिक तालमेल करने को लेकर बहस छिड़ी थी। लेकिन हैदराबाद में संपन्न हुई माकपा की 22वीं पार्टी कांग्रेस में साफ हो गया कि वह कांग्रेस के साथ कोई चुनावी गठबंधन नहीं करेगी। 2019 के चुनाव में कांग्रेस और माकपा की बीच चुनावी गठबंधन को लेकर जो अटकलें चले रही थी उस पर अब विराम लग गया। हालांकि माकपा महासचिव सीताराम येचुरी कांग्रेस के साथ तालमेल रखने के इच्छुक थे। लेकिन प्रकाश करात गुट भारी पड़ा और अंत में कांग्रेस के साथ राजनीतिक गठबंधन नहीं करने का निर्णय किया गया। हालांकि पार्टी अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मुद्दा आधारित आंदोलन में तालमेल रखेगी जिसमें कांग्रेस में भी शामिल हो सकती है।

माकपा का राजनीतिक उत्थान कांग्रेस विरोध से ही हुआ। लेकिन 2000 के बाद भारतीय राजनीति में भाजपा के बढ़ने से माकपा कांग्रेस के करीब होती गई। भाजपा को रोकने के नाम पर ज्योति बसु और हरकिशनसिंह सुरजीत ने कांग्रेस का साथ दिया। इस तरह माकपा के समर्थन से केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार बनी। ज्योति बसु ने उस समय तर्क दिया था कि जिस कांग्रेस के विरुद्ध उनको 40 वर्षों तक लड़ना पड़ा उसी को राजनीतिक कारणों से समर्थन देना पड़ा। लेकिन प्रकाश करात इसे ज्यादा दिनों तक निभा नहीं सके। प्रकाश करात ने यूपीए-1 सरकार से परमाणु करार के मुद्दे पर समर्थन वापस ले लिया। यहीं से माकपा का पतन शुरू हुआ। उसके बाद 2008 के लोकसभा चुनाव में माकपा की करारी हार हुई। अधिक सीटों पर जीत कर तृणमूल कांग्रेस यूपीए-2 सरकार में भागीदार हो गई। 2011 के विधानसभा चुनाव में बंगाल से वाममोर्चा का 34 वर्षों के शासन का अंत हो गया। 2016 के विधानसभा चुनाव में माकपा ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया लेकिन इससे भी कोई फायदा नहीं हुआ। गठबंधन का फायदा कांग्रेस को मिला और वह राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई। वाममोर्चा तीन दर्जन से कम विधायकों तक सिमट कर रह गया।

[ स्थानीय संपादकीय: पश्चिम बंगाल ]