पूर्व मंत्री आजम खां अपने बयानों के लिए हमेशा चर्चा में रहते हैं। उनमें और साक्षी महाराज में तीखा बोलने की मानो प्रतिद्वंद्विता चलती है। इन बयानों के केंद्र में राजनीति ही रहती है, लेकिन कभी-कभी दायरा मर्यादा लांघ जाता है। जैसे, रविवार को आया आजम का यह बयान कि नाचने गाने वालों पर वह प्रतिक्रिया नहीं देते क्योंकि वे उनके स्तर के नहीं। आजम पूर्व सांसद जया प्रदा की बात कर रहे थे जिन्होंने हाल ही में उनकी तुलना फिल्म पद्यावत के अलाउद्दीन खिलजी से की थी। आजम और जयाप्रदा का झगड़ा पुराना है पर इसमें नाचने गाने वालों को घसीट लाना निम्नस्तरीय हो गया। सच यह है कि नाचने गाने वालों का स्तर बहुत से नेताओं से बेहतर होता है। संगीत के घराने वैश्विक प्रसिद्धि पाते हैं जबकि हर नेता को यह नसीब नहीं होती। संगीत साधना है, तपस्या है और केवल भाग्यवान ही इसे कर पाते हैं। एक उम्र बीत जाती है कला प्रवीण होने में जबकि राजनीति के लिए यह अनिवार्यता नहीं। कुर्सी तो विरासत में मिल सकती है, लेकिन कला नहीं। बेटा किसी का हो, लोग उसके संगीत से तभी प्रभावित होंगे जब उसमें अपना दम होगा। नेताओं की तरह संगीत का बोझ ढोने के लिए लोग बाध्य नहीं। किसी को जबरदस्ती प्रेक्षागृह नहीं ले जाया जा सकता। आजम की परिभाषा तो लोक संगीत को भी लपेट लेती है। आजम यह भूल गए कि जिन किसानों और श्रमिकों की नुमाइंदगी का वह दम भरते हैं, महिलाओं के अलावा उन्होंने ही लोकगीतों की रचना की।

नेताओं के यह बड़े बोल थमने का नाम ही नहीं ले रहे। कुछ दिनों पहले एक मंत्री ने बसपा प्रमुख पर अभद्र टिप्पणी कर दी थी। उसके बाद सपा की एक पूर्व विधायक ने मर्यादा लांघी। जो भाषा ये लोग बोलते हैं, कभी संगीत के विद्वानों के मुंह से तो वह नहीं सुनी गई। वे तो अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं और लोगों के दिलों में उतर जाते हैं। कोई सर्वेक्षण हो तो पता चलेगा मां बाप की रुचि अपने बच्चों को नेता नहीं कलाकार बनाने में है।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]