यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी होने और साथ ही उनमें कैदियों से हो रहे व्यवहार पर चिंता जताई, लेकिन इस तरह की टिप्पणियों से शायद ही बात बने कि अगर कैदियों को सही तरह नहीं रखा जा सकता तो क्यों न उन्हें रिहा कर दिया जाए? आखिर कैदियों को ऐसे कैसे रिहा किया जा सकता है? इसके लिए तो नियम-कानून बनाने होंगे और उन कारणों का निवारण भी करना होगा जिनके चलते तमाम कैदी जमानत मिल जाने के बावजूद बाहर नहीं आ पाते। यह ठीक नहीं कि जमानत पाए कैदी मुचलके के अभाव में जेल में ही सड़ते रहें। इसी तरह इसका भी कोई औचित्य नहीं कि न्यायिक प्रक्रिया की सुस्ती के चलते जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या बढ़ती रहे।

विडंबना यह है कि न्यायिक सुधार सुप्रीम कोर्ट के एजेंडे में ही नहीं दिखता। उसे केवल न्यायाधीशों के रिक्त पदों की ही चिंता नहीं करनी चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि न्यायिक मामलों के निष्पादन की गति कैसे तेज हो? चूंकि प्रशासनिक तौर पर जेलें राज्यों के अधीन आती हैैं इसलिए उन्हें भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए सक्रिय-सचेत होना चाहिए। बेहतर हो कि केंद्र सरकार यह पहल करे कि जेलों में सुधार राज्यों के एजेंडे पर आए और जो योजनाएं बनें उन पर अमल भी हो। चूंकि जेलों में सुधार का मसला उपेक्षित है इसीलिए ऐसे तथ्य सामने आए कि जेलें कैदियों से अटी पड़ी हैैं और कहीं-कहीं तो क्षमता से छह सौ प्रतिशत अधिक कैदी है। इसका मतलब है कि उन्हें भेड़-बकरियों की तरह रखा जा रहा है। आखिर ऐसी स्थिति में कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा कैसे संभव है?

नि:संदेह जेलों में लोग अपने अपराध की सजा भुगतते हैैं और वे वहां सुख-सुविधा भरे जीवन की कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें न्यूनतम सुविधाएं तो मिलनी ही चाहिए। कैदी जीवन भी एक गरिमा की मांग करता है। चंद खुली जेलों को छोड़ दें तो अपने देश में ज्यादातर जेलों में अव्यवस्था का बोलबाला है। भले ही जेलों को बंदी सुधारगृहों के तौर पर जाना जाता हो, लेकिन वहां का माहौल ऐसा है जो मामूली अपराधियों को शातिर अपराधियों में तब्दील कर देता है। जेलों की अव्यवस्था अराजकता का पर्याय बनती जा रही है और इसी कारण जब भी कभी उनमें औचक निरीक्षण होता है तो प्रतिबंधित वस्तुओं के साथ नशीले पदार्थ और हथियार तक बरामद होते हैैं। रह-रह कर ऐसे भी मामले सामने आते रहते हैैं जो यह बताते हैैं कि शातिर अपराधी जेलों के अंदर रहकर अपराध तंत्र का संचालन करने में सक्षम हैैं। यह तो अव्यवस्था की पराकाष्ठा है। इस पर हैरत नहीं कि गंभीर मामलों में आरोपित और भारत में वांछित तत्व यह आड़ लेने में सफल रहते हैैं कि यहां की जेलों में भयंकर दुर्दशा है। ब्रिटेन में जा छिपे कई तत्वों को तो इसी कारण भारत ला पाने में नाकामी मिली है। बेहतर हो कि जहां सुप्रीम कोर्ट जेलों की अव्यवस्था पर चिंता जताने तक ही सीमित न रहे वहीं राज्य सरकारें यह समझें कि जेलों में सुधार का जरूरी काम शेष है।

[ मुख्य संपादकीय ]